Freelance Falcon ~ Weird Jhola-Chhap thing ~ ज़हन

Friday, November 19, 2010

लेबर अड्डा






सुबह की नमी मे भी सुगबुगाहट आती वहाँ, 
कोडियों के भाव बिकता खून पसीना जहाँ.

कितने ही बंगले, दुकाने बनाता, 
कितनो के काम आता,
फिर भी हर सुबह वो मजदूर,
 उसी 'लेबर अड्डे' पर खड़ा नज़र आता.  

सौ श्रमिको मे एक और मेहनती मासूम मजबूर मजदूर जुड़ा,
भोर आते ही दिहाड़ी मालिको का मोल भाव शुरू हुआ. 

पहला - "चालीस?"
साहब - "हट, मत ख़राब कर मेरी पॉलिश!" 

दूसरा - "और कम क्या दोगे, साहब, तीस?"
साहब - "चुप! अपने आस-पास वालो से कुछ सीख!"

नए से - "तू क्या लेगा, बे?" 
नया - "कुछ नहीं, बस आप दो वक़्त का खाना दे देंगे?" 
साहब - "तेरे जैसा मजदूर..मेरे यहाँ क्या करेगा? 
तेरे दो वक़्त का खाना तीस रुपयों से ज्यादा का पड़ेगा!" 


Wednesday, November 17, 2010

...अब वक़्त है जाने का!



हर ख्वाइश मे अक्स था इस अफसाने का,
हर कोशिश मे सपना था तुझे पाने का!
कल तलक मौके मिले तो दिल नादान बना,
आज हालत ने मौको को किया पल मे फ़ना!

माना की आज गर्दिश मे सफ़र करता हूँ,
ज़हन मे मेरे है पेवस्त हर अफसाना तेरा!
छुपाया था जिस गम को बड़ी खूबी से,
बरस गए बादल तेरी आँखों से वही नमी लेके!

जशन की आड़ मे रुखसत हुआ...साजिश थी मेरी,
बिना रुलाये तुझसे हाथ जो छुड़ाना था!
मुड़ा जो तुझसे तो खुदगर्ज़ क्यों मान लिया?
ये भी एक जरिया है गम को छुपाने का!

ज़माने भर की बुराई लादे फिरता हूँ फिर भी मगर....
पाक साफ़ दिखता है आँखों मे तेरी अक्स दीवाने का?
अपनी हस्ती पर जो हँसती फिरती...
अब वक़्त है उस दुनिया को आइना दिखाने का!