Freelance Falcon ~ Weird Jhola-Chhap thing ~ ज़हन

Wednesday, February 23, 2011

करण उस्ताद

Fiction

"पहले जब भीख मांगी तो सब जने यह कहते थे की 'भगवान ने हाथ पैर दिए है, कुछ काम क्यों नहीं करता? हराम का क्यों खाता है?' सबसे कहने का मन करता था की तुम सबको भगवान ने हाथ पैर के अलावा बाप भी दिया है जिसने तुम्हे 20-30 साल तक पाला है. सरकारी नौकर या लाला-सेठ बनकर मुझ जैसे कीड़ो को कोसने के लायक बनाया है. जब तुम सब इतने साल हराम का खा सकते हो तो मै क्यों नहीं? 

फिर जब गुटखा, सिगरेट, बीडी, पान मसाला लेकर घूमा तो वो कहते 'क्यों लोगो को नशा बेचता है? दूसरो को ज़हर देकर रोटी खाता है.' उन्हें भी मालूम है की मै तो देख सकता हूँ पर मेरी भूख कुछ नहीं देखती...अब चाहे वो सही काम करके मिले या गलत. फिर भी अपने आस-पास बैठे लोगो मे खुद को धर्मात्मा कहलाने के वास्ते ये ताना ज़रूर मारते. कुत्ते कहीं के! 

बड़ा शहर न जाने क्यों भोले गाँव वालो को खींचता है. भोले कहो या पागल, मेरे लिए तो एक ही है. रब जानता है मैंने उसको कितना रोका पर मेरा छोटा भाई रेल स्टेशन पर आ गया जहाँ मै रहता था. साथ वाले रूठ गए की पहले से ठूसी जगह मे एक और भूखा आ गया. चाय वाले, चने वाले, पेपर वाले, इतने थे की किसी की बिक्री ज्यादा नहीं होती थी. कोई नया आता तो वो सबको बोझ लगता. पर अब आ गया तो आ गया....मसाला-सिगरेट बेचने मे पुलिस का लफड़ा अक्सर फंसता है....काम कोई करता है सबसे पहले हम सुत जाते है. एक दिन वो भाई को भी मेरे साथ ले गए. छोटे को अपने सामने पिटते देखा तबसे इस धंदे को छोड़ दिया. भूख की आँखें उस दिन ढक ली. फिर क्या 12 मील खेतो मे चला और कई गाजर-मूली बटोरी. हाँ-हाँ वो भी हराम की थी....अगले दिन ढाबे से नमक पार करके हम भाइयों ने बचे हुए गाजर-मूलियों को बेचा. चाकू कोई देने को तैयार नहीं तो मैंने दांतों से ही काट कर नमक लगा दिया...फिर भी कुछ ख़ास कमाई नहीं हुई. आजकल सब सेहत मे मरे रहते है....कहते है मक्खियाँ है, धूल है, कटे फल नहीं खायेंगे....अरे, खाना मिल रहा है तो खाओ न...मुझे गटर मे तैरता फल मिलेगा तो वो भी खा लूँगा. आज तक वो भी नहीं मिला. 

एक दिन मेरा भाई कांवरियों के जत्थे को 9 प्लेट खिला गया उन्होंने और मंगाई तो वो मेरे पास लेने आ गया. जब तक वो उस डब्बे मे पहुँचा कांवरियों ने जनरल डिब्बा बदल लिया और पीछे चले गए. कुत....खा के तो गए ही साथ मे स्टील की प्लेटे भी ले गए. बेवक़ूफ़ भाई ट्रेन चलने तक उन्हें वहीँ ढूँढता रह गया. साथ वाले तमाशा देखते रहे पर कुछ बोले नहीं. अब ढाबे वाले को प्लेटे कैसे देते? एक आदमी से 500 का पत्ता मिला मैंने उसको बची हुई एक प्लेट पकडाई और दौड़ लगा दी खेतो की तरफ. वो चलती ट्रेन से उतरकर मेरे पीछे भागा. गरीबी और किस्मत का कभी मेल कहाँ होता है...उसको आदमी को शायद से अगले स्टेशन पर उतरना था. मै तो हाथ आया नहीं पूछ-पाछ कर वो मोटा मेरे भाई से चला पैसा वसूलने. 2 का सिक्का मिला उसको मेरे भाई की जेब से...हा हा हा...पता नहीं कितना समय था उसके पास मेरे भाई को थाने मे बिठा आया. पुलिस वालो ने उस दिन जो केस सुलझे नहीं उनका दोष भी मेरे भाई को देकर 1 साल के लिए जेल भेज दिया. सुना था की बच्चो और 18 से कम वालो के लिए अलग जेल होती है. पर लिखा-पढ़ी और वहाँ ले जाने के झंझट से बचने के वास्ते कमीनो ने 11 साल के भाई को 18 का बता दिया. मैंने भी उसको छुड़ाने की कोशिश नहीं की सोचा चलो एक साल तक राड़ कटी. रोटी मिलेगी भाई को और थोड़ी अकल भी आएगी 'बड़ो' के बीच. 

अच्छा साब! कौन सा रेडिओ आता है आपका? नाम मत लेना मेरा...उस्ताद बोल देना...भाई समझ जाएगा. रिकॉर्ड हुआ की नहीं....हो रहा है...नखलऊ वालो को करण उस्ताद का सलाम....खुद ही नाम बोल दिया...काट देना हाँ...साब धंदे के टाइम आये हो....4 ट्रेन निकली वो भी सिर्फ इस पलेटफारम से...कुछ देते तो जाओ..."