Freelance Falcon ~ Weird Jhola-Chhap thing ~ ज़हन

Thursday, September 28, 2017

समाज को तोड़ती समूह वाली मानसिकता (लेख) #ज़हन


प्राकृतिक और सामाजिक कारणों से हम सभी की पहचान कुछ समूहों से जुड़ जाती है। उदाहरण के लिए एक इंसान की पहचान कुछ यूँ - महिला, भारतीय, अच्छा कद, गेहुँआ रंग, शहरी (दिल्ली निवासी), प्रौढ़, सॉफ्टवेयर क्षेत्र में काम करने वाली, हिन्दू (दलित), मध्यमवर्गीय परिवार आदि। अब पूरा जीवन इन समूहों और उनसे निकले उप-समूहों को जीते हुए उस महिला के मन में इन सबके बारे में काफी अधिक जानकारी आ जाती है जबकि बाकी दुनिया के अनगिनत दूसरे समूहों के बारे में उसे ऊपरी या कम जानकारी होती है। ऐसी ऊपरी जानकारी पर उसके साथ समूह साझा कर रहे लोग नमक-मिर्च लगा कर ऐसा माहौल बनाते हैं कि अधिकांश लोग धीरे-धीरे मानने लगते हैं कि वो जिन समूहों से हैं, दुनिया की सबसे ज़्यादा चुनौतियाँ सिर्फ उन्हें ही देखनी पड़ती हैं और उनका समूह सर्वश्रेष्ठ है। दुनिया की हर खबर, बात, मुद्दे पर वो अपने समूहों के हिसाब से विचार बनाते हैं। 

जहाँ वो महिला कई पुरुषों द्वारा गोरे वर्ण की स्त्रियों को वरीयता देने की समस्या को समझेगी, वहीं खुद छोटे कद के या पतले पुरुषों का सहेलियों में मज़ाक उड़ाने या उन्हें वरीयता ना दिए जाने की गलत बात पर दोबारा सोचेगी भी नहीं। जहाँ उसे सॉफ्टवेयर दुनिया का सबसे कठिन क्षेत्र लगेगा, वहीं अपने पिता द्वारा दिवाली पर डाकिये को दिए इनाम पर वह सवाल करेगी कि साल में 2-4 बार तो आता है (पर उसे यह नहीं पता या शायद वह जानना नहीं चाहती कि इस डाकिया के ज़िम्मे डेढ़ हज़ार हज़ार घर और सौ दफ्तर हैं)। कभी सवाल करने पर वह रक्षात्मक होकर अपने समूह पर अनगिनत रटी हुई दलीलें सुना देगी...बिना यह समझे की संघर्ष तो सबके जीवन में है; कई बार उसके नज़रिये से 'गिफ़्टेड' या 'कम मेहनत' वाले समूहों से जुड़े लोगो में उसके समूहों से अधिक। यह मानसिकता लेकर व्यक्ति जीवनभर कुढ़ता रहता है। मन ही मन ऐसे अनेक लोगो से दूर हो जाता है जिनसे उसका अच्छा नाता बन सकता था और दोनों एक दूसरे के बहुत काम आ सकते थे। एक संभावना यह बनती है कि आपको अपना मित्र पसंद है बस उसकी कुछ बातें नहीं पसंद क्योंकि वो 'कुछ बातें' उसके अंदर दूसरे समूहों से आई हैं, जिनमे आप नहीं हो।  

इस सामाजिक अनुकूलन (सोशल कंडीशनिंग) के जाल से बाहर आकर ही समाज में निष्पक्ष, सकारात्मक योगदान देना संभव है। यहाँ ये मतलब नहीं कि अपने समूह के अधिकारों, बातों पर आवाज़ ना उठायी जाए; पर ऐसा करते हुए बिना जांचे गलत बातों-अफवाहों को बढ़ावा देना, अन्य आवाज़ों को अनसुना करनाउनको अपनी बड़ी कालजयी पहल के आगे छोटा मानना या भ्रान्ति में जीना गलत है। समूहों की तुलना में भावनाओं के बजाय तर्कों और इतिहास की घटनाओं से बने वर्तमान समीकरण के अनुसार बात करना बेहतर है।  
#मोहित_शर्मा_ज़हन #mohitness #mohit_trendster

Friday, September 8, 2017

किसका भारत महान? (कहानी) #ज़हन

Artwork - Martin Nebelong

पैंतालीस वर्षों से दुनियाभर में समाजसेवा और निष्पक्ष खोजी पत्रकारिता कर रहे कनाडा के चार्ली हैस को नोबेल शांति पुरस्कार मिलने की घोषणा हुई। नोबेल संस्था की आधिकारिक घोषणा के बाद से उनके निवास के बाहर पत्रकारों का तांता लगा था। अपनी दिनचर्या से समय निकाल कर उन्होंने एक प्रेस वार्ता और कुछ बड़े टीवी, रेडियो चैनल्स के ख़ास साक्षात्कार किये। दिन का अंतिम साक्षात्कार एशिया टीवी की पत्रकार सबीना पार्कर के साथ निश्चित हुआ। एशिया के अलग-अलग देशों में अपने जीवन का बड़ा हिस्सा बिताने वाले चार्ली खुश थे कि अब उन्हें पाश्चात्य पत्रकारों के एक जैसे सवालों से अलग कुछ बातें मिलेंगी। 

काफी देर तक अलग-अलग मुद्दों पर चर्चा करने के बाद सबीना ने कुछ संकोच से पूछा। 
"मुझे विश्वास नहीं हो रहा कि इतनी समस्याओं में आपने अभी तक भारत का नाम नहीं लिया?"

चार्ली - "क्या आप चाहती हैं कि मैं भारत का नाम लूँ?"

सबीना - "मेरा वो मतलब नहीं था। मैं कहना चाहती हूँ कि भारतीय समाज में इतनी विकृतियाँ सुनने में आती हैं, हर रोज़ इतने अपराध होते हैं....मुझे लगा आपके पास कहने को बहुत कुछ होगा।"

चार्ली - "बिल्कुल! भारतीय समाज में बहुत सी कमियाँ हैं, अक्सर अपराध सुर्खियाँ बनते हैं पर क्या आपको पता है 200 कुछ देशों की दुनिया में लगभग चौथाई देश ऐसे हैं जिनकी अधिकतर आपराधिक ख़बरें, सरकार की गलतियाँ, जनता का दुख सरकारी फ़िल्टर की वजह से वहाँ से बाहर दुनिया में नहीं जा पातीं...वहाँ की तुलना में भारत स्वर्ग है। उन देशों के अलावा कई देशों में शिक्षा और सामाजिक व्यवस्था ऐसी है कि बच्चो में अपने धर्म, देश की निंदा को हतोत्साहित किया जाता है और एक समय के बाद इस सामाजिक अनुकूलन (सोशल कंडीशनिंग) के कारण स्थानीय लोगो, मीडिया द्वारा बाहर के देशों में किसी बड़ी अप्रिय घटना के अलावा अपनी "सामान्य" या "अच्छी" छवि की रिपोर्ट्स भेजी जाती हैं। जबकि भारत में मैंने इस से उलट ट्रेंड देखा है।"

सबीना - "मैं आपकी बात समझी नहीं। कैसा उल्टा ट्रेंड?"

चार्ली - "मान लीजिये अगर दुनिया के किसी हिस्से में हुई त्रासदी में 3 दर्जन लोग मरते हैं, ये हुई पहली खबर और दूसरी खबर में भारत का कोई स्थानीय दर्जे का नेता एक रूढ़िवादी या बेवकूफाना बयान देता है। अब यहाँ ज़्यादा संभावना यह है कि भारत के नेता के गलत बयान वाली खबर, कहीं और हुई 36 लोगो की मौत वाली खबर से बड़ी बन जायेगी और दुनिया के कई हिस्सों में पहुँचेगी। इतना ही नहीं बाकायदा उस खबर का फॉलो अप भी होगा। जब लगातार किसी देश से जुडी नकारात्मक ख़बरें अंतरराष्ट्रीय मीडिया में जाती रहेंगी तो देश-दुनिया के लोगो में भारत की वैसी ही छवि बनेगी जैसी आपके मन में हैं। वर्तमान भारत अपने इतिहास के समय सा महान नहीं है पर दुनिया की नर्क सरीखी जगहों में भी नहीं है....यह देश कहीं बीच में है। किसी बात के औसत में सत्तरवें नंबर पर लटका है तो कहीं बत्तीसवां है, जो इतनी जनसँख्या और कदम-कदम पर दिखती सामाजिक विविधता में अचंभित करने वाली बात है। अब यह भारतीय लोगों पर है वो औसत से ऊपर जाते हैं या नीचे।"

सबीना - "...मतलब आप चाहते हैं भारतीय लोग और मीडिया अपनी कमियों पर बात करना छोड़ दें?"

चार्ली - "मैं चाहता हूँ भारत के लोग, मीडिया अपनी कमियों पर बात करने और कमियों का स्पीकर युक्त ढोल बजाने में अंतर समझें। अगर ऐसा नहीं  होता है तो बाहरी देशों में भारत की छवि धूमिल होती जायेगी जिसका गहरा असर पर्यटन, व्यापर, कई देशों से द्विपक्षीय संबंधों पर पड़ेगा। इतना ही नहीं भारतीय लोगो में एक-दूसरे के प्रति वैमनस्य की भावना बढ़ती जायेगी। फिर यह देश अपनी क्षमता से नीचे जाता रहेगा।"

अपनी असहजता मिटाने के लिए सबीना ने अन्य मुद्दों से जुड़े सवाल पूछने शुरू कर दिए। 

समाप्त!
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