Freelance Falcon ~ Weird Jhola-Chhap thing ~ ज़हन

Thursday, June 20, 2019

बूढ़े बरगद के पार (कहानी) #ज़हन


संतुष्टि की कोई तय परिभाषा नहीं होती। बच्चा कुदरत में रोज़ दोहराये जाने वाली बात को अपने जीवन में पहली बार देख कर संतुष्ट हो सकता है, वहीं अवसाद से जूझ रहे प्रौढ़ को दुनिया की सबसे कीमती चीज़ भी बेमानी लगती है। नवीन के चाय बागान अच्छा मुनाफा दे रहे थे। इसके अलावा अच्छे भाग्य और सही समझ के साथ निवेश किये गए पैसों से वह देश के नामी अमीरों में था। एक ही पीढ़ी में इतनी बड़ी छलांग कम ही लोग लगा पाते हैं। हालांकि, नवीन संतुष्ट नहीं था। मन में एक कसक थी...उसके पिता हरिकमल।

जब नवीन संघर्ष कर रहा था तब उसके पिता हर कदम पर उसके साथ थे। वे अपने जीवन के अनुभव उससे बांटते, निराश होने पर उसे हौंसला देते और यहाँ तक कि उसके लिए कितनी भागदौड़ करते थे। ऐसा भी नहीं था कि ये कुछ सालों की बात थी। अब नवीन की उम्र 53 साल थी और उसके पिता करीब 82 साल के थे। आज जब जीवन स्थिर हुआ तो अलजाइमर के प्रभाव में वे पुराने हरिकमल जी कहीं गुम हो गए। नवीन के लिए बात केवल खोई याददाश्त की नहीं थी, मलाल था कि ऊपरवाला कुछ कम भी देता पर ऐसा समय देखने के लिए पिता को कुछ ठीक रखता। 

"बरगद..."

हरिकमल अक्सर ये शब्द बुदबुदाते रहते थे। कसक का इलाज ढूंढ रहे नवीन ने इस शब्द पर ध्यान तो दिया पर कभी इसपर काम नहीं किया। एक दिन दिमाग को टटोलते हुए नवीन ने इस बरगद की जड़ तक जाने की ठान ली। कुछ पुराने परिजनों से और कुछ अपनी धुंधली यादों से तस्वीर बनाई। गांव में घर के पास बड़ा सा बरगद का पेड़। खेती-बाड़ी करने के बाद पिताजी उसकी छांव में बैठा करते थे। इसके अलावा हरिकमल कुछ और भी कहते रहते थे पर वह बात पूरा ध्यान देने पर भी समझ नहीं आती थी।  ऐसा लगता था जैसे बरगद के बाद बोली बात उनके मन में तो है पर होंठो तक आते-आते बिखर जाती थी। क्या पता वह दूसरी बात अलजाइमर के प्रभाव में उन्हें याद न हो....या वे खुद बोलना न चाहते हों। अब अधूरी तस्वीर में एक पुराना बरगद था और बाकी यादों के कोहरे में छिपी कोई बात। चलो पूरी न सही एक सिरा ही सही। 

 नवीन ने विशेषज्ञों का एक दल पिताजी के आधे-अधूरे वर्णनों को पकड़ने में लगा दिया।

"बरगद..."

यह शब्द और इसके अलावा जो कुछ भी हरिकमल कहते उसपर गहन चर्चाएं होती, कलाकारों से स्केच बनवाये जाते और कंप्यूटर की मदद से उन्हें असलियत के करीब लाया जाता। परिजनों और नवीन की यादों पर शोध कार्य हुए। अंत में नवीन के एक फार्म हाउस का बड़ा हिस्सा साफ़ करके उसमें गांव जैसा पुराना घर और दूसरे शहर से जड़ों के नीचे कई मीटर मिट्टी समेत विशाल, पुराने बरगद को लगाया गया। कच्चे मकान और बरगद की कटाई छटाई इस बारीकी से की गई थी कि वो सबकी यादों के आइनों के सामने खरे उतर सकें। 

"बरगद..."

लो बरगद तो आ गया। नवीन, सारे परिजन और उसका अनोखा दल 'बरगद' पर हरिकमल जी की प्रतिक्रिया जानने को बेचैन था। हालांकि, डॉक्टरों ने किसी बड़े चमत्कार की उम्मीद रखने की सलाह नहीं दी थी। फिर भी ये अनोखा प्रयोग और इससे जुड़ी मेहनत, भावनाएं जैसे डॉक्टरों की सलाह को अनदेखा करने की अपनी ही सलाह दे रही थीं। 

हरिकमल को फार्म हाउस लाया गया। इस बात का पूरा खयाल रखा गया कि उन्हें अचानक बड़ा झटका न लगे। बरगद को ढ़ककर रखा गया। धीरे-धीरे उन्हें पुराने घर से जुड़ी चीज़ें दिखाई गईं, वैसे तापमान और खेतों में कुछ दिनों तक रोज़ थोड़ी देर के लिए रखा गया। जब उनकी प्रतिक्रिया और सेहत सही बनी रही तो आख़िरकार पुराने बरगद से उनके मिलने की तारीख तय हुई।

"बरगद..."
वह दिन भी आया। हरिकमल से मिलने उनका 'बरगद' आया था। वे बरगद से किसी पुराने यार की तरह लिपट गए। बरगद से ही उनका लंबा एकालाप में लिपटा वार्तालाप चला। उनकी ख़ुशी और संतुष्टि देख कर सभी अपनी मेहनत सफल मान रहे थे। इतने में हरिकमल ज़मीन पर निढाल होकर रोने लगे। सब कुछ ठीक तो हो गया था? अब क्या रह गया? 

सब सवालों से घिरे थे पर नवीन को जैसे जवाब पता था या शायद वह इस घटना का इंतज़ार कर रहा था। अपने दल और नौकरों को हरिकमल से दूर हटाकर नवीन उनसे लिपट गया।

"देख...बाबू..."

"बोलो पिता जी, क्या रह गया? क्यों परेशान हो...इतने सालों से। क्यों मुँह में मर जाती है बरगद के बाद दूसरी बात?"

दहाड़े मारते हरिकमल बोले - "बरगद तो आ गया..."

"बरगद तो आ गया...पर पुराना माहौल नहीं आया।"

समाप्त!  
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Wednesday, June 19, 2019

जब क्रिकेट से मिलने बाकी खेल आए...(कविता) #ज़हन


एक दिन सब खेल क्रिकेट से मिलने आए,
मानो जैसे दशकों का गुस्सा समेट कर लाए।
क्रिकेट ने मुस्कुराकर सबको बिठाया,
भूखे खेलों को पाँच सितारा खाना खिलाया।

बड़ी दुविधा में खेल खुस-पुस कर बोले... 
हम अदनों से इतनी बड़ी हस्ती का मान कैसे डोले?
आँखों की शिकायत मुँह से कैसे बोलें?
कैसे डालें क्रिकेट पर इल्ज़ामों के घेरे?
अपनी मुखिया हॉकी और कुश्ती तो खड़ी हैं मुँह फेरे...
हिम्मत कर हाथ थामे टेनिस, तीरंदाज़ी आए,
घिग्घी बंध गई, बातें भूलें, कुछ भी याद न आए...

"क...क्रिकेट साहब, आपने हमपर बड़े ज़ुल्म ढाए!"

आज़ादी से अबतक देखो कितने ओलम्पिक बीते, 
इतनी आबादी के साथ भी हम देखो कितने पीछे!

माना समाज की उलझनों में देश के साधन रहे कम,
बचे-खुचे में बाकी खेल कुछ करते भी...तो आपने निकाला दम!

इनकी हिम्मत से टूटा सबकी झिझक का पहरा, 
चैस जैसे बुज़ुर्ग से लेकर नवजात सेपक-टाकरा ने क्रिकेट को घेरा...

जाने कौनसे नशे से तूने जनता टुन्न की बहला फुसला,
जाने कितनी प्रतिभाओं का करियर अपने पैरों तले कुचला...

कब्बडी - "वर्ल्ड कप जीत कर भी मेरी लड़कियां रिक्शे से ट्रॉफी घर ले जाएं...
सात मैच खेला क्रिकेटर जेट में वोडका से भुजिया खाये?"

फुटबॉल - "पूरी दुनिया में पैर हैं मेरे...यहां हौंसला पस्त,
तेरी चमक-दमक ने कर दिया मुझे पोलियोग्रस्त।"

बैडमिंटन - "हम जैसे खेलों से जुड़ा अक्सर कोई बच्चा रोता है,
गलती से पदक जीत ले तो लोग बोलें...ऐसा भी कोई खेल होता है?"

धीरे-धीरे सब खेलों का हल्ला बढ़ गया,
किसी की लात...किसी का मुक्का क्रिकेट पर बरस पड़ा।

गोल्फ, बेसबॉल, बिलियर्ड वगैरह ने क्रिकेट को लतिआया,
तभी झुकी कमर वाले एथलेटिक्स बाबा ने सबको दूर हटाया...

"अपनी असफलता पर कुढ़ रहे हो...
क्यों अकेले क्रिकेट पर सारा दोष मढ़ रहे हो?
रोटी को जूझते घरों में इसे भी तानों की मिलती रही है जेल,
आखिर हम सबकी तरह...है तो ये भी एक खेल!
वाह, किस्मत हमारी,
यहाँ एक उम्र के बाद खेलना माना जाए बीमारी।
ये ऐसे लोग हैं जो पैकेज की दौड़ में पड़े हैं...
हाँ, वही लोग जो प्लेस्कूल से बच्चों का एक्सेंट "सुधारने" में लगे हैं। 
ऐसों का एक ही रूटीन सुबह-शाम,
क्रिकेट के बहाने सही...कुछ तो लिया जाता है खेलों का नाम।

हाँ, भेड़चाल में इसके कई दीवाने,
पर एक दिन भेड़चाल के उस पार अपने करोड़ों कद्रदान भी मिल जाने!
जलो मत बराबरी की कोशिश करो,
क्रिकेट नहीं भारत की सोच को घेरो!

समाप्त!
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