समाज में एक वो तबका भी है जिनके दो चेहरे होते है, एक घर-बंद दरवाज़ो
के बाहर का चेहरा और दूसरा घिनौना चेहरा जिसकी शिकार कोई असहाय या उस
व्यक्ति पर बहुत विश्वास करने वाली या उसकी अपनी पत्नी जो इसको दिनचर्या
का हिस्सा मान लेती है। मामले सामने आने पर कभी-कभी पीड़ित को ही दोषी । जिसे सही-गलत कि समझ नहीं
उस समाज कि क्यों चिंता करना? ये कविता मेरी ऐसी ही बहनो पर है जो
चुप-चाप घुटबना दिया जाता है जिस डर से कई स्त्रियां ये बात अपने तक रख कर खुद में घुटती रहती है। हाँ, कहना आसान और करना मुश्किल पर अपने लिए और आने वाली पीढ़ियों के लिए चुप न रहे। अभी छोटी मानसिकता वाले समाज में कई साफ़ दिल रखने वाले है, वो आपको कोसेंगे नहीं, बल्कि आपका साथ देंगे कर यौन हिंसा का दर्द पालती रहती है।
सावन से रूठने की हैसियत ना रही....
(November 2013)
सख्त शख्सियत अब नहीं लेती अब मौसमो के दख्ल
अक्सर आईने बदले अपने अक्स की उम्मीद में ...
हर आईना दिखायें अजनबी सी शक्ल।
अपनी शिनाख्त के निशां मिटा दिये कबसे ...
बेगुनाही की दुहाई दिये बीते अरसे ....
दिल से वो याद जुदा तो नहीं !
मुद्दतों उस इंतज़ार की एवज़ में वीरानो से दोस्ती खरीदी,
ज़माने से रुसवाई के इल्ज़ाम की परवाह तो नहीं !
सावन से रूठने की हैसियत ना रही।
रोज़ दुल्हन सी सवाँर जाती है मुझको यादें ....
हर शाम काजल की कालिख़ से चेहरा रंग लेती हूँ ....
ज़िन्दगी को रूबरू कर लेती हूँ ...
कभी उन यादों को दोष दिया तो नहीं ...
सावन से रूठने की हैसियत ना रही।
इज़हार रे याद,
हाल ए दिल बयाँ करना रोजाना अमल लाये,
कैसे मनाएँ दिल को के आज हकीकत सामने है...
रोज़ सा खाली दिन वो नहीं ...
उस पगडंडी का सहारा था,
वरना रूह ख़ाक करने में कसर न रही ....
ज़हर लेकर भी जिंदगी अता तो नहीं ....
सावन से रूठने की हैसियत ना रही।
इल्जामो में ढली रुत बीती न कभी,
जाने कब वो मोड़ ले आया इश्क ...
बर्दाश्त की हद न रही।
अरसो उनकी बदगुमानी की तपिश जो सही ....
सरहदें खींचने में माहिर है ज़माना,
दोगली महफिलों से गुमनामी ही भली ..
खुद की कीमत तेरी वरफ़्तगी से चुनी ...
जिस्म की क़ैद का सुकून पहरेदारों का सही ...
ख्वाबो पर मेरे बंदिशें तो नहीं ...
सावन से रूठने की हैसियत ना रही।
कैसी महफ़िल है जहाँ बयानो पर भड़कती भीड़,
मेरे अंजामो पर तड़पती तो नहीं...
उस हैवानियत पर भड़कती क्यों नहीं?
मेरे खूबसूरत चेहरे सी सबकी सीरत तो नहीं...
सावन से रूठने की हैसियत ना रही।
क्यों यह फ़िज़ा भारी सी है?
कहीं इस पर भी सुर्ख धुंद हावी तो नहीं?
कल रूह हार कर पूछ ही बैठी,
यहाँ इंसाफ से पहले बुतों के सामने कितनी दरख्वास्त लगाती हूँ,
सीधे खुदा तक जाती क्यों नहीं?
सावन से रूठने की हैसियत ना रही।
- मोहित शर्मा (ज़हन)
*Poem got the special mention (Roobaru Duniya January 2014 Issue) in the inaugural Kavya Pallavan Competition organized by Hind Yugm.