Freelance Falcon ~ Weird Jhola-Chhap thing ~ ज़हन

Sunday, November 26, 2017

"...और मैं अनूप जलोटा का सहपाठी भी था।"

*कलाकार श्री सत्यपाल सोनकर

पिछले शादी के सीज़न से ये आदत बनायी है कि पैसों के लिफाफे के साथ छोटी पेंटिंग उपहार में देता हूँ। पेंटिंग से मेरा मतलब फ्रेम हुआ प्रिंट पोस्टर या तस्वीर नहीं बल्कि हाथ से बनी कलाकृति है। पैसे अधिक खर्च होते हैं पर अच्छा लगता है कि किसी कलाकार को कुछ लाभ तो मिला। एक काम से घुमते हुए शहर की तंग गलियों में पहुँचा खरीदना कुछ था पर बिना बोर्ड की एक दुकान ने मेरा ध्यान खींचा जिसके अंदर कुछ कलाकृतियाँ और फ्रेम रखे हुए थे। सोचा पेंटिंग देख लेता हूँ। कुछ खरीदने से पहले एक बार ये ज़रूर देखता हूँ कि अभी जेब में कितने पैसे हैं या एटीएम कार्ड रखा है या नहीं। एक कॉन्फिडेंस सा रहता है कि चीज़ें कवर में हैं। किस्मत से जिस काम के लिए गया था उसको हटाकर जेब में 200-300 रुपये बचते और कार्ड भी नहीं था। अब पता नहीं इस तरफ कब आना हो। इस सोच में दुकान के बाहर जेब टटोल रहा था कि अंदर से एक बुज़ुर्ग आदमी ने मुझे बुलाया। 
अंदर प्रिंट पोस्टर, फ्रेम किये हुए कंप्यूटर प्रिंट रखे थे और उनके बीच पारम्परिक कलाकृतियाँ रखी हुई थीं। पोस्टर, प्रिंट चमक रहे थे वहीं हाथ की बनी पेंटिंग्स इधर-उधर एक के ऊपर एक धूमिल पड़ी थी जैसे वक़्त की मार से परेशान होकर कह रही हों कि 'देखो हम कितनी बदसूरत हो गयी हैं, अब हमें फ़ेंक दो या किसी कोने में छुपा कर रख दो...ऐसे नुमाइश पर मत लगाओ।' मैंने उन्हें कहा की मुझे एक पेंटिंग चाहिए। 
"मेरी ये पेंटिंग्स तो धुंधली लगती हैं बेटा! आप प्रिंट, पोस्टर ले जाओ।"
सुनने में लग रहा होगा कि इस वृद्ध कलाकार को अपनी कला पर विश्वास नहीं जो प्रिंट को कलाकृति के ऊपर तोल रहा है। जी नहीं! अगर उसे अपनी कला पर भरोसा ना होता तो वो कबका कला को छोड़ चुका। उसे कला पर विश्वास है पर शायद दुनिया पर नहीं। मैंने उन्हें अपनी मंशा समझायी और धीरे-धीरे अपने कामों में लगे उस व्यक्ति का पूरा ध्यान मुझपर आ गया। आँखों में चमक के साथ उन्होंने 2-3 पेंटिंग्स निकाली। 

"बारिश, धूप में बाकी के रंग मंद पड़ गये हैं। अभी ये ही कुछ ठीक बची हैं जो किसी को तोहफे में दे सकते हैं।" 

 मेरे पास समय था और उसका सदुपयोग इस से बेहतर क्या होता कि मैं इस कलाकार, सत्यपाल सोनकर की कहानी सुन लेता। 

1951 में चतुर्थ श्रेणी रेलवे कर्मचारी के यहाँ जन्म हुआ। सात बहनों के बाद हुए भाई और इनके बाद एक बहन, एक भाई और हुए। तब लोगो के इतने ही बच्चे हुआ करते थे। कला, रंग, संगीत में रुझान बचपन से था पर आस-पास कोई माहौल ही नहीं था। वो समय ऐसा था कि गुज़र-बसर करना ही एक हुनर था। कान्यकुब्ज कॉलेज (के.के.सी.) लखनऊ में कक्षा 6 में संगीत का कोर्स मिला जिसमें इनके सहपाठी थे मशहूर भजन, ग़ज़ल गायक श्री अनूप जलोटा। स्कूली और जिला स्तरीय आयोजनों, प्रतियोगिताओं में कभी अनूप आगे रहते तो कभी सत्यपाल। एक समय था जब शिक्षक कहते कि ये दोनों एक दिन बड़ा नाम करेंगे। उनकी कही आधी बात सच हुई और आधी नहीं। जहाँ अनूप जलोटा के सिर पर उनके पिता स्वर्गीय पुरुषोत्तम दास जलोटा का हाथ था, वहीं सत्य पाल जी की लगन ही उनकी मार्गनिर्देशक थी। पुरुषोत्तम दास जी अपने समय के प्रसिद्द शास्त्रीय संगीत गायक रहे जिन्होंने शास्त्रीय संगीत की कुछ विधाओं को भजन गायन में आज़माकर एक नया आयाम दिया। अनूप जलोटा ने संगीत की शिक्षा जारी रखते हुए लखनऊ के भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय से डिग्री पूरी की, फिर लाखो-करोड़ो कैसेट-रिकार्ड्स बिके, भजन सम्राट की उपाधि, पद्म श्री मिला, बॉलीवुड-टीवी, देश-विदेश में कंसर्ट्स....और सत्यपाल? घर की आर्थिक स्थिति के कारण वो अपनी दसवीं तक पूरी नहीं कर पाये। 1968 में कारपेंटरी का कोर्स कर दुनिया से लड़ने निकल गये, जो लड़ाई आजतक चल रही है। रोटी की लड़ाई में सत्यपाल ने कला को मरने नहीं दिया। उनकी कला उनसे 5-7 बरस ही छोटी होगी। फ्रेमिंग का काम करते हुए कलाकृतियाँ बनाते रहे और बच्चों को पेंटिंग सिखाते रहे। 
*इस पेंटिंग को बनाने में लगभग 2 सप्ताह का समय लगा

"आप पेंटिंग सिखाने के कितने पैसे लेते हैं?"

"एक महीने का पांच सौ और मटेरियल बच्चे अलग से लाते हैं। जिनमें लगन है पर पैसे नहीं दे सकते उनसे कुछ नहीं लिया।"
कभी एक सतह पर खड़े दो लोग, आज एक के लिए अलग से प्राइवेट जेट तक आते हैं और एक खुले पैसे गिनने में हुई देर से टेम्पों वाले की चार बातें सुनता  है। कला के सानिध्य में संतुष्ट तो दोनों है पर एक दुनियादारी नाग के फन पर सवार है और एक उसका दंश झेल रहा है। सत्यपाल जी की संतोष वाली मुस्कराहट ही संतोष देती है। क्या ख्याल आया? पागल है जो मुस्कुरा रहा है? पागल नहीं है जीवन, कला और उन बड़ी बातों के प्यार में है जिनके इस छोटी सोच वाली दुनिया में कोई मायने नहीं है। क्या सत्यपाल हार गये? नहीं! वो पिछले 49 सालों से जीत रहे हैं और जी रहे हैं। अपने शिष्यों की कला में जाने कबतक जीते रहेंगे। 
ओह, बातों-बातों में इनकी चाय पी ली और समय भी खा लिया। अब दो-ढाई सौ रुपये में कौनसी ओरिजिनल पेंटिंग मिलेगी? एटीएम कार्ड लाना चाहिए था। कुछ संकोच से पेंटिंग का दाम पूछा। 

"75 रुपये!"

अरे मेरे भगवान! धरती फट जा और मुझे खुद में समा ले। क्या-क्या सोच रहा था मैं? सत्य पाल जी ने तो मेरी हर सोच तक को दो शब्दों से पस्त कर दिया। क्या बोलूँ, अब तो शब्द ही नहीं बचे। आज पहली बार मोल-भाव में पैसे बढ़ाने की कोशिश कर रहा था। मैंने कोशिश की पर उन्होंने एक पैसा नहीं बढ़ाया। मैंने बचे हुए पैसो की एक और थोड़ी बड़ी पेंटिंग खरीदी और वहाँ आते रहने का वायदा किया। आप सबसे निवेदन है कि डिजिटल, ट्रेडिशनल आदि किसी भी तरह और क्षेत्र के कलाकार से अगर आपका सामना हों तो अपने स्तर पर उनकी मदद करने की कोशिश करें। विवाह, जन्मदिन और बड़े अवसरों पर कलाकृति, हस्तशिल्प उपहार में देकर नया ट्रेंड शुरू करें। 

नशे से नज़र ना हटवा सके...
उन ज़ख्मों पर खाली वक़्त में हँस लेता हूँ,
मुफ़लिसी पर चंद तंज कस देता हूँ...
बरसों से एक नाव पर सवार हूँ,
शोर ज़्यादा करती है दुनिया जब...
उसकी ओट में सर रख सोता हूँ। 
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#ज़हन

Saturday, November 25, 2017

नयी कॉमिक - पगली प्रकृति (Vacuumed Sanctity Comic)


Comic: Pagli Prakriti - पगली प्रकृति (Vacuumed Sanctity), Hindi - 15 Pages. 
English version coming soon.
Google Play - https://goo.gl/Drp1Bs
Also available: Dailyhunt App, Google Books, Slideshare, Scribd, Ebooks360 etc.
Team - Abhilash Panda, Mohit Trendster, Shahab Khan, Amit Albert.
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नादान मानव की छोटी चालों पर भारी पड़ती प्रकृति की ज़रा सी करवट की कहानी...

Friday, November 24, 2017

यादों की तस्वीर (लघु-कहानी)


आज रश्मि के घर उसके कॉलेज की सहेलियों का जमावड़ा था। हर 15-20 दिनों में किसी एक सहेली के घर समय बिताना इस समूह का नियम था। आज रश्मि की माँ, सुमित्रा से 15 साल बड़ी मौसी भी घर में थीं। 

रश्मि - "देख कृतिका...तू ब्लैक-ब्लैक बताती रहती है मेरे बाल...धूप में पता चलता है। ये ब्राउन सा शेड नहीं आ रहा बालों में? इनका रंग नेचुरल ब्राउन है।"

कृतिका - " नहीं जी! इतना तो धूप में सभी के बालों का रंग लगता है।"

सुमित्रा बोली - "शायद दीदी से आया हो। इनके तो बिना धूप में देखे अंग्रेज़ों जैसे भूरे बाल थे। रंग भी एकदम दूध सा! आजकल वो कौनसी हीरोइन आती है...लंदन वाली? वैसी! "

जगह-जगह गंजेपन को छुपाते मौसी के सफ़ेद बाल और चेचक के निशानों से भरा धुंधला चेहरा माँ की बतायी तस्वीर से बहुत दूर थे। रश्मि का अपनी माँ और मौसी से इतना प्यार था कि वो रुकी नहीं... "क्या मम्मी आपकी दीदी हैं तो कुछ भी?" रश्मि की हँसी में उसकी सहेलियों की दबी हँसी मिल गयी। 

झेंप मिटाने को अपनी उम्रदराज़ बहन की आँखों में देख मुस्कुराती सुमित्रा जानती थी कि उसकी कही तस्वीर एकदम सही थी पर सिर्फ उसकी यादों में थी। 
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#ज़हन Artwork - Chuby M Art

Thursday, November 16, 2017

दो प्रकार के कलाकार (लेख) #freelance_talents

Artwork - Matt S.

एक कला क्षेत्र के प्रशंसक, उस से जुड़े हुए लोग उस क्षेत्र में 2 तरह के कलाकारों के नाम जानते हैं। पहली तरह के कलाकार जिनके किये काम कम हैं। फिर भी उन्होंने जितना किया है सब ऐसे स्तर से किया है कि प्रशंसकों, क्षेत्र के बाहर कई लोगों को उनके बारे में अच्छी जानकारी है। दूसरी तरह के कलाकारों के काम की संख्या बहुत अधिक है पर उनके औसत काम की पहुँच कम है। उदाहरण - मान लीजिए कलाकार #01 ने एक नामी प्रकाशन में इंटर्नशिप की और वहाँ उसे बड़े प्रकाशनों के साथ काम करने का अवसर मिला। उसने अपने जीवनकाल में 31 पुस्तकों में चित्रांकन किया और बड़े प्रकाशन में छपने के कारण उसकी हर पुस्तक के चर्चे देश-दुनियाभर में हुए। साथ ही बड़े नाम के कारण उसकी कलाकृतियों की कई प्रदर्शनियाँ लगीं। अब मिलिए कलाकार #02 से जो बचपन से कला बना रहा है। सीमित साधनों, अवसरों के बीच कुछ स्थानीय प्रकाशनों के साथ लगातार काम कर रहा है। उसे अब खुद याद नहीं कि उसने कला में अपने जीवन के कितने करोड़ क्षणों की आहुति दी है। कभी-कभार इंटरनेट या किसी प्रदर्शनी में वायरल हुई कलाकृति से उसका नाम उस क्षेत्र में रूचि रखने वाले लोगों को दिख जाता है। सालों-साल 15-20 बार यह नाम सुनकर लोग कह देते हैं कि "हाँ, कहीं सुना हुआ लग रहा है ये नाम..." बस ये कुछ सांत्वना मिल जाती है। बाकी क्षेत्र के बाहर तो इतना भी दिलासा नहीं। कलाकृतियों की संख्या और कला में प्रयोग, विविधता की तुलना करें तो कलाकार #02 ने अपने जीवन में जितना काम किया है उसमे से 36 कलाकार #01 निकल आयें। 

कलाकार #01 को घनत्व/नाम/भाग्य श्रेणी और कलाकार #02 को वॉल्यूम (मात्रा) बेस्ड श्रेणी में रखा जा सकता है। ज़रूरी नहीं पूरे जीवन कोई एक श्रेणी में रहे पर अधिकांश कलाकार एक ही श्रेणी में अपना जीवन बिता देते हैं। कई लोगों का तर्क होता है कि अगर किसी में अपने काम को लेकर लगन-पैशन, एकाग्रता है तो उसे सफलता मिलती है बाकी बातें केवल बहाने हैं। यह बात आंशिक सच है पूरी नहीं। यहाँ दोनों श्रेणी के कलाकार सफल हैं। पहला कलाकार अपनी मार्केटिंग और पैसे के मामले में सफल हुआ है लेकिन कला की साधना के मामले में दूसरा कलाकार सफल है, उसके लिए तो यही सफलता है कि सारे जीवन वह कला में लीन रहे। अब ये देखने वाले पर है कि वह दुनियादारी में रहकर देख रहा है या दुनियादारी से ऊपर उठकर। ध्यान देने योग्य बात ये कि कई असफल लोग भाग्य को दोष देते हुए खुद को मात्रा बेस्ड (कलाकार #02) की श्रेणी में मान लेते हैं जबकि उसके लिए भी कई वर्षों की मेहनत लगती है। दो-चार साल या और कम समय कहीं हाथ आज़मा किस्मत को दोष देकर वो क्षेत्र छोड़ देने वाले व्यक्ति को इन दीर्घकालिक श्रेणियों में नहीं गिना जा सकता। 

यहाँ किसी को सही या ग़लत नहीं कहा जा रहा। जीवन के असंख्य समीकरण कब किसको कहाँ ले जायें कहा नहीं जा सकता। अगर आप किसी भी तरह की कला चाहे वो संगीत, लेखन, काव्य, नृत्य, पेंटिंग आदि में रूचि लेते हैं तो कोशिश करें की अपनी तरफ से अधिक से अधिक वॉल्यूम बेस्ड श्रेणी के कलाकारों के काम तक पहुँचे, उन्हें प्रोत्साहित करें, अन्य लोगों को उनके बारे में बतायें क्योकि उनकी कला आपतक आने की बहुत कम सम्भावना है। बड़े मंच के सहारे कलाकार #01 का काम तो आप तक आ ही जायेगा। 
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Tuesday, November 14, 2017

इंटरनेटिया बहस के मादक प्रकार (व्यंग लेख) #ज़हन


दो या अधिक लोगों, गुटों में किसी विषय पर मतभेद होने की स्थिति के बाद वाली चिल्ल-पों को बहस कहते हैं। वैसे कभी-कभी तो विषय की ज़रुरत ही नहीं पड़ती है। दूसरी पार्टी से पुराने बैकलॉग की खुन्नस ही बिना मतलब की बहस करवा देती है। बहस में उलझे लोगों के व्यक्तित्व निर्भर करते हैं कि बहस अनियंत्रित होकर उनकी नींदें ख़राब करेगी, पुलिस में रिपोर्ट करवायेगी, ऑनलाइन माध्यम से जूते-घुसंड तक की नौबत आ जायेगी या दूसरे मत का सम्मान करते हुए बात 2-4 मिनट बाद भुला दी जायेगी। इंटरनेटिया बहस और बहस करने वालों के कई प्रकार हैं....इतने हैं कि लेखक को खुद नहीं पता कितने हैं। जितने पता हैं उनपर मंथन शुरू करते हैं। 

*) - धप्पा बहस - इस बहस में पड़ने वालो के पास बहस के लिए समय नहीं होता पर बहस में पड़ने का अद्भुत नशा वो छोड़ना नहीं चाहते। जिसपर उन्हें गुस्सा आ रहा होता है उन्हें एक या दो रिप्लाई का धप्पा मारकर ये लोग निकल जाते हैं। नोटिफिकेशन नहीं आई तो ये बहस जीत गये और अगर आई तो इन्होने तो अपनी तरफ से धप्पा का फ़र्ज़ निभा दिया न? तो भी ये स्वयं को जीता हुआ मान लेते हैं। 

*) - लिहाज़ बहस - इस बहस को कर रहे लोग ऐसे बंधन या मजबूरी मे होते हैं कि खुलकर सामने वाले को कुछ कह नहीं सकते। कहना तो दूर सार्वजनिक प्लेटफार्म पर कन्विंसिंग रूप से हरा भी नहीं सकते। जैसे कोई व्यापारी और उसका पुराना क्लाइंट, फूफा जी जिनका घर में अक्सर आना होता है, स्कूल का जिगरी यार आदि। लिहाज़ बहस में बातों का दंश तोड़ दिया जाता है कि काटना बस औपचारिकता लगती है, उल्टा पोपले दंश से सामने वाले को गुलगुली होती है। 

*) - शान में गुस्ताख़ी बहस - दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जिन्हे लगता है कि उनके जन्म पर ग्रहों का यूँ सधा अलाइनमेंट हुआ कि वो कभी ग़लत हो ही नहीं सकते। उनसे मत भिन्न होना आपके विचार नहीं हैं बल्कि एक महापाप है। "पृथ्वी को भगवान की देन...हमसे बहस!" इस महापाप की सज़ा देने का प्रण लेते हैं और बहस के बाहर आपके पीछे पड़ जाते हैं। बिना बहस के अगर उन्हें उनकी मान्यता से नयी या अलग जानकारी मिलती है तो उनके ट्रांसमीटर की रेंज हाथ जोड़ लेती है। अगर वो अपने सर्किल में सबसे ऊपर हैं तो पूरा जीवन दम्भ में गुज़र जाता है। 

*) - लाचार बहस - एक व्यक्ति के पास अपना संतुलित दिमाग है। उसने आम मुद्दों पर अपना मत बना रखा है पर बॉस, घरवाले, प्रेमी-प्रेमिका के दबाव में उसे मजबूरी में बहस में कूदना पड़ता हैं। कई बार तो ऐसे झगडे में जिसमे उसे सामने वाली पार्टी की बात ज़्यादा सही लग रही होती है। ऐसा लगता है कि 2 मुँह एक ही बात बोल रहे हैं। अगर करीबी व्यक्ति को उसका पासवर्ड पता है तो वह अपने प्रियजन की ओर से खुद को वोट तक डाल आता है। 

*) - छद्म बहस - कुछ लोग अपना खाली समय ऑनलाइन और असल जीवन में गुर्गे बनाने में लगाते हैं। धीरे-धीरे ये लोग अपने बड़े समूह के सदस्यों का ऐसा स्नेह जीतते हैं कि फिर ये बहस में सीधे नहीं पड़ते। सही भी तो है, कौन अपना समय बर्बाद करे? ये लोग अपने सिपाहियों को लड़ने भेजते हैं। इतना ही नहीं अगर सिपाही नौसिखिया हो या जंग हार रहा हो तो उसके गुरु मैसेज और फ़ोन पर उससे अपना अनुभव बाँटकर विजयी बनाते हैं। बाहरी दुनिया के लिए इनकी छवि एक सुलझे हुए, निष्पक्ष व्यक्ति की होती है जबकि अंदर ही अंदर ये पूरा कण्ट्रोल रूम चलाने का आनंद ले रहे होते हैं। 

*) - ग़लतफ़हमी बहस - अगर ग़लत या कम जानकारी की वजह से कोई बहस में पड़ जाये तो सार्वजानिक माफ़ी माँगना भारी लगने लगता है। अब अपना चेहरा बचाने के लिए वह तरह-तरह के ध्यान बँटाऊ टैक्टिस अपनाते हैं। हालाँकि, कुछ लोग संभल जाते हैं पर कई पुरानी गलतियों से सीख ना लेते हुए ग़लतफ़हमी में धूल धूसरित हो अपनी छवि ही ग़लत बनवा बैठते हैं। 


*) - टाइमपास बहस - जीवन से निर्वाण प्राप्त करने के बाद बहुत कम चीज़ें बचती हैं जो एक व्यक्ति को सांसारिक मोह में बाँधे रखती हैं। ज़िन्दगी के हर पहलु से बोर होने के बाद एक ख़ास प्रजाति के लोग बहस कला साधना में लीन होना चाहते हैं। इसके लिए एक सेल्स पर्सन की तरह वो जगह-जगह अपनी बहस की पिच देते हैं और 10 में से एक-दो लोग उनकी कामनापूर्ति कर उनके दिन का रियाज़ करवाते हैं। 

*) - अनुसंधान बहस - हज़ारों लोगो के सामने बार-बार मुँह की खाने के बाद भी कइयों की भूख नहीं मरती। कुछ को हारने की ज़रुरत नहीं पड़ती उनके अंदर कुछ डिग्री का ओ.सी.डी. होता है। तो ये लोग मुद्दों के अलावा बहस में आने वाले संभावित लोगो की जाँच-पड़ताल करते हैं। जैसे कोई व्यस्त रहता है, कोई कम पढ़ा-लिखा है, कोई एक विषय पर एक बार समझाने के बाद वापस नहीं आता, किसी को फलाना क्षेत्र की कम जानकारी है, कोई इस जगह नहीं गया आदि। इस जानकारी के आधार पर कुशल कारीगर की तरह ये अपनी बहस के तर्क बनाते हैं। चाहे इनका मत सही हो या गलत पर कालजयी रिसर्च से बहस के मामले में इनका विन-लॉस रिकॉर्ड बड़ा अच्छा हो जाता है। 

*) - पिकी बहस - मान लीजिये किसी मुद्दे से जुड़े 10 बिन्दुओं में से पाँच साहब #01 के सही हैं और पाँच पर साहब #02 की बातें भारी हैं। अब साहब #01 क्या करते हैं कि अपने सही बिन्दु चुन, हर बिन्दु के सहारे महल खड़ा कर उन्ही पर बातें बढ़ाने के प्रपंच रचते हैं। बाकी साहब #02 की सही बातें गयीं गन्ने की मशीन में...जैसे बचपन में बच्चे को नहलाते हुए मम्मी-पापा बोलते हैं - "अच्छी-अच्छी बाबू की! छी-छी कौवे की!" बड़ो की उस बात को ये ऐसी दिल से लगते हैं कि  हमेशा अपनी अच्छी-अच्छी के गिफ्ट, शाबाशी लेने कूद पड़ते हैं लेकिन छी-छी की ज़िम्मेदारी नहीं लेते। 

इनके अलावा अनगिनत बहसों में ऑफ-टॉपिक बहस जिसमें बातों की धारा का कहाँ से बहकर कहाँ चली जाना, ऑनलाइन ट्रोल सेनाओं की महाभारत बहस, हफ्तों चलने वाली टेस्ट मैच बहस आदि शामिल हैं। अंत में यही सलाह है कि अगर बातें आपराधिक, हिंसा भड़काने वाली नहीं हैं तो दूसरों के विचारों का सम्मान करना सीखें। जैसे संभव है एक व्यक्ति किसी छोटे उद्देश्य में लगा हो जिसके लिए दुनिया में काफी कम लोग चाहिए हों पर इसका मतलब ये नहीं अपने बड़े उद्देश्य (जिसके पीछे करोड़ों लोग हैं) की आड़ लेकर आप उसका उपहास उड़ायें या उसके काम को मान्यता ही ना दें। जीवन को समय दें कोई आपकी बहस जीतने-हारने का स्कोर नहीं रख रहा।  
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Wednesday, November 1, 2017

माँ सरस्वती की शिष्या: स्वर्गीय गिरिजा देवी


1949 में आकाशवाणी, इलाहाबाद में अपनी पहली सार्वजनिक प्रस्तुति देने के बाद, पिछले लगभग सात दशकों से विश्वभर में हिंदुस्तानी शास्त्रीय-उपशास्त्रीय संगीत का परचम में लहरा रहीं पद्म विभूषण गायिका गिरिजा देवी का कोलकाता में (24 अक्टूबर, 2017) दिल का दौरा पड़ने से देहांत हो गया। शायद आप उनका नाम पहली बार सुन रहे हों या कहीं सुना-सुना सा लग रहा हो। अगर हाँ...तो इसमें पूरा दोष आपका नहीं है। कला दो प्रकार की होती है। पहली कला जो आम लोगो के पास आती है और दूसरी कला जिसके पास लोगो को जाना पड़ता है, मतलब यह कि एक कला का आनंद लेने के लिए लोगो को अधिक जानकारी की ज़रुरत नहीं पड़ती जबकि दूसरी कला का रस पीने के लिए पहले उस से जुडी कई बातें समझनी पड़ती है। जैसे 100/200 मीटर दौड़ को कोई भी समझ सकता है जबकि बेसबॉल को समझने के लिए पहले उसके अनेक नियमों, अंको का अर्जन आदि को समझना होगा। शास्त्रीय संगीत ऐसी ही कला है जिसका आनंद लेने के लिए पहले उस से जुड़े स्वर, विधाएँ, घरानों, यंत्र आदि को समझना पड़ता है। वहीं फ़िल्मी संगीत अक्सर अपनी सतह पर धुन, वैरायटी परोस देता है तो सुनने वालो को ज़्यादा दिमाग नहीं लगाना पड़ता। यही वजह है कि हम जितना पॉप, रॉक, फ़िल्मी संगीत के सितारों को जानते हैं उतना शास्त्रीय संगीत के गायक, संगीतज्ञों को नहीं जानते। बॉलीवुड या अब यूट्यूब में 2-4 गानों के बाद ही गायकों की फॉलोइंग लाखों-करोड़ों में पहुँच जाती है। ऐसी पहचान का अंश भर पाने के लिए शास्त्रीय संगीत के साधकों को दशकों साधना करनी पड़ती है।  

अपनों द्वारा गिरिजा जी को प्यार से 'अप्पा जी' कहा जाता था और जीवन के लंबे सफर में अप्पा जी कई शिष्यों, श्रोताओं के लिए अपनी हो गई थीं। वैसे तो उन्हें ठुमरी का चेहरा कहा गया पर उप-शास्त्रीय संगीत, पूरब-अंग गायन की कई विधाओं में उन्हें महारत हासिल थी। ठुमरी, दादरा, छंद, ख्याल, टप्प, कजरी, चैती-होली आदि में उनके कुशल, मोहक गायन का जादू दिखता है। 

बनारस संगीत के दो नामी संगीतज्ञों श्री सरजू प्रसाद मिश्र और श्री चंद मिश्र की छाँव में अप्पा जी ने संगीत ही नहीं हर तरह के गायन से पहले मन में वैसे भाव लाने, वाद्ययंत्रो के साथ तालमेल बैठाने की बारीकी सीखी। वर्षों की मेहनत से मिले कण उन्होंने अपने शिष्यों को प्रदान किये पर शायद फिर भी कुछ कण उनके साथ लोम हो गये। ठुमरी की महारानी! प्रेम के अनगिनत भावों को तराशती हुई वो स्वयं ठुमरी में खो जाती थीं। उनके जीवनकाल में राधा-कृष्णा के प्रेम से लेकर आज के युग की उपमाओं तक ठुमरी का रस बिखरता रहा। अपने गायन में वो वासना, फूहड़पन, ज़बरदस्ती के विद्रोह से दूर शान्ति के भाव रखती थीं। ऐसी शान्ति जिसमे साधक और श्रोता दोनों संसार भूलकर खो जाएँ। 

गिरिजा जी को फ्यूज़न (विलय) संगीत से परहेज़ था। उनका मानना था कि अधिक शोर के साथ काव्य को बारीकी से गाना बहुत कठिन है। इस वजह से वो फ्यूज़न बैंड्स द्वारा भेजे गये निमंत्रणों को स्वीकार नहीं करती थी। गिरिजा जी ख्याल और ठुमरी की कभी तुलना नहीं करती थीं। वो कहती कि एक तरफ राग, लय की आत्मा है जबकि एक तरफ मनोरम काव्य पंक्तियों की राह है और दोनों ही अपने में पूर्ण हैं। उनके परिवार का झुकाव काव्य की तरफ था इसलिए उनकी रूचि भी ठुमरी में अधिक रही। जब नये ज़माने में ठुमरी को तुलनात्मक आसान विधा कहा जाने लगा तो गिरिजा जी ने ख्याल की कठिन पगडंडियों का रियाज़ कर कुछ इस तरह साधा कि कोई उनपर सवाल ना कर सके। अपनी हर प्रस्तुति, कॉन्सर्ट में उन्होंने ख्याल विधा को भी शामिल किया। गिरिजा जी खुद को देवी सरस्वती (ज्ञान और ललित कला की देवी) की सेविका मानती थी। उनके अनुसार वो स्वयं को माँ सरस्वती की शिष्या होने लायक बना रही थीं। आशा है गिरिजा जी के शिष्य उनकी दिखायी राह पर चलकर भारतीय शास्त्रीय संगीत में योगदान देंगे और अब गिरिजा जी माँ सरस्वती के सानिध्य में तीनो लोकों को अपनी ठुमरी से मोहित कर रही होंगी। नमन!
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#ज़हन
(Wrote this article for Roobaru Duniya App)