Entry #4
from meerut
डर हर किसी के जीवन का अंग है, बस उसके कारक अलग-अलग हो सकते है पर डर का अनुभवकभी ना कभी हम सभी करते है। अपने अनुभव से मैंने यह सीखा है कि डर को टाल कर हम उसे अपनी आदत में आने का और बड़ा होने का अवसर दे देते है जबकि उसका सामना कर उसको हराना उतना मुश्किल नहीं जितना हम समझते है। जीत कभी तुरंत मिल जाती है और कभी धीरे-धीरे भय को मारा जाता है।
मेरा डर अँधेरे से था। वजह तो पता नहीं पर बस यही एक बात थी जिस से मुझे बेचैनी होती थी। बचपन तो मम्मी-पापा के बीच में राजा की तरह सोकर कट गया पर टीनएजर होने पर बड़े भैया और दीदी के अलग शहरों में जाने के बाद अपना कमरा मिला तो रात में लाइट ऑफ करना मेरे लिए एक संघर्ष बन गया। जैसा मैंने कहा कि इसका कारण मुझे याद नहीं पर अवचेतन मन में शायद कोई बचपन में सुनी कहानी घर कर गयी थी या मैंने खुद ही कोई अनजान अनुभव गढ़ लिया था। धीरे-धीरे घरवालो ने इस आदत के लिए टोकना शुरू किया पर हमेशा मेरे पास कुछ ना कुछ बहाने रहते थे लाइट जली छोड़ने के। शायद समय के साथ मेरे पिता जी जान चुके थे पर मुझे बुरा ना लगे इसलिए उन्होंने कभी ज़्यादा ज़ोर नहीं दिया इस बात पर मेरे बड़े होने के बाद भी।
यह भय केवल अंधकार का नहीं था बल्कि उसमे गढ़ी अज्ञात बातों, काल्पनिक भूत-प्रेतों, जीवों का भी भय था। जब भी लाइट ऑफ कर सोने की कोशिश करता तो ऐसा लगता जैसे कोई कमरे में बैठा मुझे देख रहा है। उस ओर पीठ कर सोने को होता तो लगता कि वह और पास आ गया है। वैसे अंधेरे में कहीं बाहर टहलने में, किसी अँधेरी जगह जाने में यह डर शायद इसलिए नहीं लगता था क्योकि मन को गाड़ियों-लोगो कि आवाज़ों से यह तस्सली रहती थी कि आस-पास कोई है और कुछ अनहोनी होने पर मैं दौड़ कर उनके पास पहुँच सकता हूँ। पर रात को ना लोगो कि आवाज़े रहती और ना ही मैं परिवार के सदस्यों को परेशान करना चाहता था इसलिए चाहे-अनचाहे मुझे अपने कमरे में मुझे घूरते अनजान जीवों के साथ रहना पड़ता।
इन्वर्टर आम होने के ज़माने से पहले लाइट जाने पर रात में अगर मेरी नींद खुलती तो 15-20 मिनट्स तक करवटें बदलने तक अगर लाइट वापस नहीं आती तो मुझे बरामदे में टहलना पड़ता जहाँ दूर की स्ट्रीट लाइट्स से, घरों से थोड़ी बहुत रौशनी रहती थी। वैसे तो टोर्च भी थी पर घुप्प अँधेरे में टोर्च की रौशनी घरवालो का ध्यान खींच सकती थी और उसे किसी तरह ढकने या एंगल बदलने पर फायदा ना होता। पूरी कोशिश रहती थी की मेरे परिवार पर यह बात ज़ाहिर ना हो इसलिए रात में कम से कम हरकते करता था। एक बार तो सरकारी मकान में अपने कमरे कि खिड़की के कोने में अच्छा-खासा छेद कर दिया जिस से लाइट जाने पर भी दूर अलग फेज़ की स्ट्रीट लाइट की बीम से कमरे में थोड़ा उजाला रहे।
समय के साथ चीज़ें बदली पर यह आदत जैसे मेरे रूटीन में आ गयी। अगर मैं कहीं किसी के यहाँ कुछ दिनों के लिए बाहर जाता या किसी फंक्शन आदि वजह से कोई मेरे कमरे में सोता तब मुझे ऐसा कोई डर नहीं लगता था। पर यह बात 25 साल के हो जाने के बाद भी जारी रहने पर मुझे परेशान करने लगी। जब भी मैं लाइट बंद कर सोने की कोशिश करता तो कुछ ही देर में इतनी बेचैनी हो जाती कि उठकर स्विच ऑन करना पड़ता। अब खुद पर गुस्सा बढ़ने लगा था। पहले तो 6 फ़ीट से ऊपर अपने शरीर को देख कर लगता था कि ऐसा क्यों करता हूँ मैं, फ़िर इस बात को बचपन से अब तक घसीटते जाने पर। एक यह सोचने पर हँसी और रोष दोनों आते थे कि बचपन से अब तक मैं कितनी लाइट वेस्ट कर चुका हूँ इस डर के चक्कर में।
समस्या पर गौर करने पर मैंने पाया कि अब तक मैं सिर्फ इसको अनदेखा कर रहा था, टालते हुए बच रहा था पर असल में मैंने कभी इसका सामना तो किया ही नहीं। सबसे पहले तो मैंने पाया की मेरा शरीर और मेरी आँखें रात में रौशनी की इतनी अभ्यस्त हो चुकी थी कि उजाला कम या बंद होने पर अपने आप मेरी नींद टूट जाती थी, शायद तभी कहते है कि बहुत लम्बे समय तक बुरी आदत के साथ रहने पर उस से पीछा छुड़ाना लगभग नामुमकिन सा हो जाता है। फिर मैंने अपने कमरे में रात के लिए अलग से ज़ीरो वॉट का बल्ब लगाया और कुछ हफ्ते उसमे सोया। जब मुझे कुछ अंतर महसूस हुआ तो समय था डर से सीधे उसके इलाके में युद्ध करने का। मैंने एक रात वह बल्ब भी ऑफ कर दिया पर पूरी रात सो नहीं पाया, पसीने से लथपथ बेचैनी का यह सिलसिला कुछ दिनों तक चला। फिर मैंने ध्यान बटाऊ टैक्टिक्स सोचे जैसे सोने से पहले खुद को अलग-अलग विचारों में डुबा देना, एक्सरसाइज से बहुत थका लेना, भगवान जी का स्मरण करते रहना, म्यूजिक सुनना आदि जिस से फायदा हुआ पर लगा कि यह भी भय को टालना हुआ, उसका सामना करने के बजाए।
अब मैंने बिना सहारे के सीधा मुकाबला करने की ठानी। मैं कमरे में हर उस तरफ उन काल्पनिक आँखों में देखता रहता जब तक मुझे नींद नहीं आती। अंतर लग रहा था, मैं बेहतर महसूस कर रहा था। कुछ दिन बाद अपने रूटीन में मैंने बिस्तर से तुरंत उठ कर कमरे के उन कोनो, जगहों पर जाकर घूरना शुरू कर दिया जहाँ मुझे लगता कोई मुझे बैठा/खड़ा घूर रहा है। इस बात कि घूरने वाले/वाली को शायद आदत नहीं थी, अब मैं भी अंधेरे के उन काल्पनिक लोगो को वैसे ही परेशान कर रहा था जैसे होश संभालने के बाद से अब तक उन्होंने मेरी नींद हराम कि थी (और मेरे पापा का बिजली का बिल बढ़वाया था)। आखिरकार मैंने इस डर को खुद से अलग कर लिया था और जैसे एक भ्रम को राख कर मन से एक भारी बोझ कम कर लिया। मैं चैन से सोने के लिए अब उजाले पर निर्भर नहीं। अब कभी कभी वह घूरने वाला कमरे मे आता है तो उस तरफ मुस्कुरा कर आराम से सो जाता हूँ।