Freelance Falcon ~ Weird Jhola-Chhap thing ~ ज़हन

Friday, November 22, 2019

कुछ मीटर पर...ज़िंदगी! (कहानी)


आस-पास के माहौल का इंसान पर काफ़ी असर पड़ता है। उस माहौल का एक बड़ा हिस्सा दूसरे इंसान ही होते हैं। एक कहावत है कि आप उन पांच लोगों का मिश्रण बन जाते हैं जिनके साथ आप सबसे ज़्यादा समय बिताते हैं। जहाँ कई लोग दूसरों को सकारात्मक जीवन जीने की सीख दे जाते हैं वहीं कुछ जीवन के लिए अपना गुस्सा, नाराज़गी और अवसाद अपने आस-पास छिड़कते चलते हैं।

35 साल का कुंदन, रांची की एक बड़ी कार डीलरशिप में सेल्समैन था। अक्सर खुद में कुढ़ा सा रहने वाला जैसे ज़िंदगी से ज़िंदगी की चुगली करने में लगा हो। उसकी शिकायतों का पिटारा कभी ख़त्म ही नहीं होता था। इस वजह से उसके ज़्यादा दोस्त नहीं थे। गांव से दूर शहर में अकेले रहते हुए वह घोर अवसाद में पहुंच गया था। उसे लगता था कि दुनिया में कोई उसे समझता नहीं था। वैसे उसका यह सोचना गलत नहीं था...आखिर कम ही लोग लगातार एक जैसी नकारात्मकता झेल सकते हैं।
इस बीच उसके पड़ोस में निजी स्कूल की शिक्षिका तृप्ति आई। वह कुंदन की तरह ही औरों से कुछ अलग थी। धीरे-धीरे दोनों में बातें शुरू हुईं और दोनों एक-दूसरे को पसंद करने लगे। नहीं...नहीं यह प्यार वाला "पसंद" करना नहीं था। दोनों इस हद तक नकारात्मक होकर अवसाद में डूब चुके थे कि उनकी शिकायती बातें कोई और समझ रहा है और पसंद कर रहा है...बस यह बात ही दोनों को कुछ तस्सली देती थी। कहते हैं किसी का साथ इंसान को अवसाद की गर्त से निकालने के लिए काफी होता है पर ये दोनों तो साथ ही दलदल में डूब रहे थे। यह भी किस्मत की बात थी कि इस सयानी दुनिया की आदत पड़ने के बाद भी दोनों ने अपने मन के उन दबे राज़ों को खोला, जिनको लोग पागलपन का नाम देकर बात तक करना नहीं चाहते। कुछ हफ्ते बीतने के बाद कुंदन और तृप्ति को अपने बीच कुछ प्यार जैसा महसूस तो हुआ पर उसके ऊपर टूटे व्यक्तित्वों की इतनी परतें थी जिनके पार देख पाना असंभव था।
धीरे-धीरे बातों के विषय शिकायत, परेशानी से अलग होकर स्थायी हल पर आने लगे। दोनों आत्महत्या पर बातें करने लगे। यही तो इनके मन में था। हर झंझट से चुटकी में छुटकारा पाना। दोनों का प्यार बढ़ रहा था लेकिन दोनों को ही खुद पर भरोसा नहीं था...कहीं उनका बावरा मन इस नॉवल्टी से बोर होकर पुरानी रट न लगाने लगे। एक दिन दोनों आत्महत्या के तरीकों पर गहरा विमर्श करने लगे। तृप्ति ने कुंदन से अनुरोध किया कि प्यार में घुली इस दोस्ती के नाते दोनों को साथ  मरना चाहिए। 

कुंदन तृप्ति के बालों में हाथ फिराता हुआ बोला। - "मैं भी ऐसा ही चाहता हूँ! लेकिन मैं साधारण मौत नहीं चाहता।" 

तृप्ति ने दिलचस्पी भरी नज़रों से कहा - "मतलब? यह असाधारण मौत कैसी होती है भला?"

कुंदन - "मतलब, ज़िंदगी ढंग की न सही मौत तो ज़बरदस्त होनी चाहिए। ऐसे जैसे लोग मरते न हों...क्या कहती हो?"

तृप्ति - "वाह! ठीक है, चलो कुछ 'ज़बरदस्त' सोचते हैं। हा हा!"

मरने की बातें जो लोग गलती से करने पर भी भगवान से माफ़ी मांगते हैं। इधर कुंदन और तृप्ति कितनी आसानी से कर रहे थे।

घंटों बातें करने के बाद दोनों के अपनी मौत का अलग तरीका चुना। अगले दिन कुंदन डीलरशिप से बहाना बनाकर एक कार निकाल लाया। उसने अपनी गारंटी पर तृप्ति को कुछ देर टेस्ट ड्राइव के लिए दूसरी कार दी। योजना यह थी कि सुनसान तालाब के बगल वाली सड़क के एक छोर से तेज़ रफ़्तार कार में कुंदन आएगा और कुछ दूर से तृप्ति। दोनों इस गति से एक-दूसरे से टकराएंगे कि मौके पर मौत पक्की। अगर कोई घायल होकर कुछ देर के लिए बच भी जाए तो इस वीरान इलाके में किसी के आने तक उसका भी मरना तय था। दोनों फ़ोन पर जुड़े और साथ में अपनी-अपनी कार चालू कर तेज़ी से एक-दूसरे की तरफ बढ़े। डीलरशिप से निकली चमचमाती कारें अपनी किस्मत और कुंदन-तृप्ति को कोस रहो होंगी। 

"आई लव यू!"

"आई लव यू टू!"

क्या इस इज़हार में देर हो गई थी? क्या यही अंत था?

जब कारें दो-ढाई सौ मीटर की दूरी पर थी तो कुंदन और तृप्ति को बीच सड़क पर एक नवजात बच्ची पड़ी हुई दिखी। शायद इनकी तरह कोई और भी इस वीराने का फ़ायदा उठा रहा था...इस बच्ची को खुद मारने के बजाय प्रकृति से हत्या। कायर! 

इतनी रफ़्तार में फ़ोन पर कुछ बोलने का समय नहीं बचा था दोनों ने आँखों में बात की और टक्कर होने से कुछ मीटर पहले गाड़ियां मोड़ दी। जीवन का इतना समय केवल आत्महत्या और इस पल के बारे में सोचने वाले इतने करीब से कैसे चूक गए? शायद उस बच्ची में दोनों को जीने की वजह मिल गई थी। बच्ची को देखने के बाद के दो सेकंड और आँखों से हुई बात ने कुंदन और तृप्ति की जीवन भर की उलझन सुलझा दी थी। तृप्ति की कार तालाब में जा गिरी वहीं कुंदन पेड़ से टकराने से बाल-बाल बचा। घुमते दिमाग के साथ कुंदन ने उतरकर उस बच्ची को कार में रखा और तालाब में छलांग लगा दी। कुंदन किसी तरह तृप्ति के पास पहुंचा जो जीने के लिए डूबती कार की खिड़की को ज़ोर-ज़ोर से मार रही थी। कितना अजीब है न कि कुछ सेकंड पहले वह मरने को तड़प रही थी और अब जीने के लिए पागल हुई जा रही थी। इस बात को भांपकर दोनों इस स्थिति में भी मुस्कुराने लगे। कार का शीशा टूटा और कुंदन तृप्ति को तालाब से सुरक्षित निकाल लाया। मौत की आँखों में झांककर और जीवन की डोर पकड़कर दोनों खुशी से काँप रहे थे। बच्ची भी हल्की नींद में मुस्कुरा रही थी जैसे अपने नए माँ-बाप की बेवकूफियों पर हँस रही हो।

तृप्ति और कुंदन वापस उस जीवन, उन संघर्षों में एक नई उम्मीद के साथ वापस लौटे और अपने सकारात्मक नज़रिए से जीवन को बेहतर बनाने लगे। अब जब भी वे परेशान होते तो अपनी बेटी का चेहरा देखकर सब भूल जाते। ऐसा नहीं था कि उन्हें किसी जादू से ज़िंदगी में खुशियों की चाभी मिल गई थी, बस अब वे ज़िंदगी से बचते नहीं थे बल्कि उससे लड़ते थे।

उस दिन कुंदन और तृप्ति ने उस बच्ची को नहीं बचाया था...उस बच्ची ने बस वहाँ मौजूद होकर उन दोनों की जान बचाई थी।

समाप्त!
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Artwork - Louis L.
#ज़हन

Saturday, November 2, 2019

Colorblind Beloved - कलरब्लाइंड साजन Translation


'Colorblind Beloved’, English translation of my story ‘कलरब्लाइंड साजन’. Translator - Swarajya. PC - Art Corgi

कभी कोई किसी रचना पर ऑडियो बना देता है, कोई अनुवाद कर देता है पर रचनाकार को कोई नहीं बताता! 😠

Friday, August 16, 2019

My Stories on Kuku FM #ज़हन


Talented Kuku FM team is creating audio stories, audio books on my stories and poems. 🤖 🥳
Kuku FM वेबसाइट और ऐप्लिकेशन पर सुनिए कई जॉनर में मेरी कहानियाँ और काव्य। पहली दो कहानियों के लिंक ये रहे -





जल्द ही और कहानियाँ भी...

Saturday, July 13, 2019

शहर के पेड़ से उदास लगते हो...(नज़्म)

दबी जुबां में सही अपनी बात कहो,
सहते तो सब हैं...
...इसमें क्या नई बात भला!
जो दिन निकला है...हमेशा है ढला!
बड़ा बोझ सीने के पास रखते हो,
शहर के पेड़ से उदास लगते हो...

पलों को उड़ने दो उन्हें न रखना तोलकर,
लौट आयें जो परिंदों को यूँ ही रखना खोलकर।
पीले पन्नो की किताब कब तक रहेगी साथ भला,
नाकामियों का कश ले खुद का पुतला जला।
किसी पुराने चेहरे का नया सा नाम लगते हो,
शहर के पेड़ से उदास लगते हो...

साफ़ रखना है दामन और दुनियादारी भी चाहिए?
एक कोना पकड़िए तो दूजा गंवाइए...
खुशबू के पीछे भागना शौक नहीं,
इस उम्मीद में....
वो भीड़ में मिल जाए कहीं।
गुम चोट बने घूमों सराय में...
नींद में सच ही तो बकते हो,
शहर के पेड़ से उदास लगते हो...

फिर एक शाम ढ़ली,
नसीहतों की उम्र नहीं,
गली का मोड़ वही...
बंदिशों पर खुद जब बंदिश लगी,
ऐसे मौकों के लिए ही नक़ाब रखते हो?
शहर के पेड़ से उदास लगते हो...

बेदाग़ चेहरे पर मरती दुनिया क्या बात भला!
जिस्म के ज़ख्मों का इल्म उन्हें होने न दिया।
अब एक एहसान खुद पर कर दो,
चेहरा नोच कर जिस्म के निशान भर दो।
खुद से क्या खूब लड़ा करते हो,
शहर के पेड़ से उदास लगते हो...
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#ज़हन

Thursday, June 20, 2019

बूढ़े बरगद के पार (कहानी) #ज़हन


संतुष्टि की कोई तय परिभाषा नहीं होती। बच्चा कुदरत में रोज़ दोहराये जाने वाली बात को अपने जीवन में पहली बार देख कर संतुष्ट हो सकता है, वहीं अवसाद से जूझ रहे प्रौढ़ को दुनिया की सबसे कीमती चीज़ भी बेमानी लगती है। नवीन के चाय बागान अच्छा मुनाफा दे रहे थे। इसके अलावा अच्छे भाग्य और सही समझ के साथ निवेश किये गए पैसों से वह देश के नामी अमीरों में था। एक ही पीढ़ी में इतनी बड़ी छलांग कम ही लोग लगा पाते हैं। हालांकि, नवीन संतुष्ट नहीं था। मन में एक कसक थी...उसके पिता हरिकमल।

जब नवीन संघर्ष कर रहा था तब उसके पिता हर कदम पर उसके साथ थे। वे अपने जीवन के अनुभव उससे बांटते, निराश होने पर उसे हौंसला देते और यहाँ तक कि उसके लिए कितनी भागदौड़ करते थे। ऐसा भी नहीं था कि ये कुछ सालों की बात थी। अब नवीन की उम्र 53 साल थी और उसके पिता करीब 82 साल के थे। आज जब जीवन स्थिर हुआ तो अलजाइमर के प्रभाव में वे पुराने हरिकमल जी कहीं गुम हो गए। नवीन के लिए बात केवल खोई याददाश्त की नहीं थी, मलाल था कि ऊपरवाला कुछ कम भी देता पर ऐसा समय देखने के लिए पिता को कुछ ठीक रखता। 

"बरगद..."

हरिकमल अक्सर ये शब्द बुदबुदाते रहते थे। कसक का इलाज ढूंढ रहे नवीन ने इस शब्द पर ध्यान तो दिया पर कभी इसपर काम नहीं किया। एक दिन दिमाग को टटोलते हुए नवीन ने इस बरगद की जड़ तक जाने की ठान ली। कुछ पुराने परिजनों से और कुछ अपनी धुंधली यादों से तस्वीर बनाई। गांव में घर के पास बड़ा सा बरगद का पेड़। खेती-बाड़ी करने के बाद पिताजी उसकी छांव में बैठा करते थे। इसके अलावा हरिकमल कुछ और भी कहते रहते थे पर वह बात पूरा ध्यान देने पर भी समझ नहीं आती थी।  ऐसा लगता था जैसे बरगद के बाद बोली बात उनके मन में तो है पर होंठो तक आते-आते बिखर जाती थी। क्या पता वह दूसरी बात अलजाइमर के प्रभाव में उन्हें याद न हो....या वे खुद बोलना न चाहते हों। अब अधूरी तस्वीर में एक पुराना बरगद था और बाकी यादों के कोहरे में छिपी कोई बात। चलो पूरी न सही एक सिरा ही सही। 

 नवीन ने विशेषज्ञों का एक दल पिताजी के आधे-अधूरे वर्णनों को पकड़ने में लगा दिया।

"बरगद..."

यह शब्द और इसके अलावा जो कुछ भी हरिकमल कहते उसपर गहन चर्चाएं होती, कलाकारों से स्केच बनवाये जाते और कंप्यूटर की मदद से उन्हें असलियत के करीब लाया जाता। परिजनों और नवीन की यादों पर शोध कार्य हुए। अंत में नवीन के एक फार्म हाउस का बड़ा हिस्सा साफ़ करके उसमें गांव जैसा पुराना घर और दूसरे शहर से जड़ों के नीचे कई मीटर मिट्टी समेत विशाल, पुराने बरगद को लगाया गया। कच्चे मकान और बरगद की कटाई छटाई इस बारीकी से की गई थी कि वो सबकी यादों के आइनों के सामने खरे उतर सकें। 

"बरगद..."

लो बरगद तो आ गया। नवीन, सारे परिजन और उसका अनोखा दल 'बरगद' पर हरिकमल जी की प्रतिक्रिया जानने को बेचैन था। हालांकि, डॉक्टरों ने किसी बड़े चमत्कार की उम्मीद रखने की सलाह नहीं दी थी। फिर भी ये अनोखा प्रयोग और इससे जुड़ी मेहनत, भावनाएं जैसे डॉक्टरों की सलाह को अनदेखा करने की अपनी ही सलाह दे रही थीं। 

हरिकमल को फार्म हाउस लाया गया। इस बात का पूरा खयाल रखा गया कि उन्हें अचानक बड़ा झटका न लगे। बरगद को ढ़ककर रखा गया। धीरे-धीरे उन्हें पुराने घर से जुड़ी चीज़ें दिखाई गईं, वैसे तापमान और खेतों में कुछ दिनों तक रोज़ थोड़ी देर के लिए रखा गया। जब उनकी प्रतिक्रिया और सेहत सही बनी रही तो आख़िरकार पुराने बरगद से उनके मिलने की तारीख तय हुई।

"बरगद..."
वह दिन भी आया। हरिकमल से मिलने उनका 'बरगद' आया था। वे बरगद से किसी पुराने यार की तरह लिपट गए। बरगद से ही उनका लंबा एकालाप में लिपटा वार्तालाप चला। उनकी ख़ुशी और संतुष्टि देख कर सभी अपनी मेहनत सफल मान रहे थे। इतने में हरिकमल ज़मीन पर निढाल होकर रोने लगे। सब कुछ ठीक तो हो गया था? अब क्या रह गया? 

सब सवालों से घिरे थे पर नवीन को जैसे जवाब पता था या शायद वह इस घटना का इंतज़ार कर रहा था। अपने दल और नौकरों को हरिकमल से दूर हटाकर नवीन उनसे लिपट गया।

"देख...बाबू..."

"बोलो पिता जी, क्या रह गया? क्यों परेशान हो...इतने सालों से। क्यों मुँह में मर जाती है बरगद के बाद दूसरी बात?"

दहाड़े मारते हरिकमल बोले - "बरगद तो आ गया..."

"बरगद तो आ गया...पर पुराना माहौल नहीं आया।"

समाप्त!  
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Wednesday, June 19, 2019

जब क्रिकेट से मिलने बाकी खेल आए...(कविता) #ज़हन


एक दिन सब खेल क्रिकेट से मिलने आए,
मानो जैसे दशकों का गुस्सा समेट कर लाए।
क्रिकेट ने मुस्कुराकर सबको बिठाया,
भूखे खेलों को पाँच सितारा खाना खिलाया।

बड़ी दुविधा में खेल खुस-पुस कर बोले... 
हम अदनों से इतनी बड़ी हस्ती का मान कैसे डोले?
आँखों की शिकायत मुँह से कैसे बोलें?
कैसे डालें क्रिकेट पर इल्ज़ामों के घेरे?
अपनी मुखिया हॉकी और कुश्ती तो खड़ी हैं मुँह फेरे...
हिम्मत कर हाथ थामे टेनिस, तीरंदाज़ी आए,
घिग्घी बंध गई, बातें भूलें, कुछ भी याद न आए...

"क...क्रिकेट साहब, आपने हमपर बड़े ज़ुल्म ढाए!"

आज़ादी से अबतक देखो कितने ओलम्पिक बीते, 
इतनी आबादी के साथ भी हम देखो कितने पीछे!

माना समाज की उलझनों में देश के साधन रहे कम,
बचे-खुचे में बाकी खेल कुछ करते भी...तो आपने निकाला दम!

इनकी हिम्मत से टूटा सबकी झिझक का पहरा, 
चैस जैसे बुज़ुर्ग से लेकर नवजात सेपक-टाकरा ने क्रिकेट को घेरा...

जाने कौनसे नशे से तूने जनता टुन्न की बहला फुसला,
जाने कितनी प्रतिभाओं का करियर अपने पैरों तले कुचला...

कब्बडी - "वर्ल्ड कप जीत कर भी मेरी लड़कियां रिक्शे से ट्रॉफी घर ले जाएं...
सात मैच खेला क्रिकेटर जेट में वोडका से भुजिया खाये?"

फुटबॉल - "पूरी दुनिया में पैर हैं मेरे...यहां हौंसला पस्त,
तेरी चमक-दमक ने कर दिया मुझे पोलियोग्रस्त।"

बैडमिंटन - "हम जैसे खेलों से जुड़ा अक्सर कोई बच्चा रोता है,
गलती से पदक जीत ले तो लोग बोलें...ऐसा भी कोई खेल होता है?"

धीरे-धीरे सब खेलों का हल्ला बढ़ गया,
किसी की लात...किसी का मुक्का क्रिकेट पर बरस पड़ा।

गोल्फ, बेसबॉल, बिलियर्ड वगैरह ने क्रिकेट को लतिआया,
तभी झुकी कमर वाले एथलेटिक्स बाबा ने सबको दूर हटाया...

"अपनी असफलता पर कुढ़ रहे हो...
क्यों अकेले क्रिकेट पर सारा दोष मढ़ रहे हो?
रोटी को जूझते घरों में इसे भी तानों की मिलती रही है जेल,
आखिर हम सबकी तरह...है तो ये भी एक खेल!
वाह, किस्मत हमारी,
यहाँ एक उम्र के बाद खेलना माना जाए बीमारी।
ये ऐसे लोग हैं जो पैकेज की दौड़ में पड़े हैं...
हाँ, वही लोग जो प्लेस्कूल से बच्चों का एक्सेंट "सुधारने" में लगे हैं। 
ऐसों का एक ही रूटीन सुबह-शाम,
क्रिकेट के बहाने सही...कुछ तो लिया जाता है खेलों का नाम।

हाँ, भेड़चाल में इसके कई दीवाने,
पर एक दिन भेड़चाल के उस पार अपने करोड़ों कद्रदान भी मिल जाने!
जलो मत बराबरी की कोशिश करो,
क्रिकेट नहीं भारत की सोच को घेरो!

समाप्त!
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Saturday, May 11, 2019

कई नाम हैं मेरे! (कहानी) - अनुभव पत्रिका मई 2019 में प्रकाशित



कल मेरा चेहरा और मेरी लिखी एक बात इंटरनेट पर वायरल हो गई। इतने सालों में ऐसा पहली बार हुआ है कि मुझे भी इतने लोगों ने जाना है। वायरल हुई बात बताने से पहले अपने बारे में थोड़ा बताता चलूं।

समाज के कायदे-कानून को बकवास बताने वालों को भी उन कायदों में रहकर अपने फायदे देखने पड़ते हैं। जो इन नियमों को नहीं मानते या मजबूरी में मान नहीं पाते उनकी किसी न किसी तरह से शामत पक्की है। 10-12 घंटे की नौकरी, 3-4 घंटे का आना-जाना बाकी नींद, खाने के अलावा क्या किया याद ही नहीं रहा। घर से दूर अजनबी शहर में पुराने यार भी छूट गए। ऐसी जीवनशैली के कद्दूकस में घिसकर जैसे सेहत, जवानी और दिमाग हर बीतते पल के साथ ख़त्म हो रहे थे। बचे समय में दिमागी संतुलन बचाने में सिर्फ़ इंटरनेट, सोशल मीडिया की आभासी दुनिया का सहारा था। यहाँ मैं भी कई लोगों की तरह अपने नीरस जीवन को चमकीली पन्नी में लपेट कर दिखाने में माहिर हो गया था। इस बीच बहुत से आभासी दोस्त भी बन गए। उन्ही में जीतता, उन्ही को जताता इस लत के सहारे जीता रहा। 


उस मनहूस दिन मेरी माँ चल बसीं। कितना कुछ सोच रखा था उनके लिए! क्या-क्या करके उनका कर्ज़ उतारूंगा। अपनी औसत ज़िन्दगी में बेचारी का ज़्यादा कर्ज़ चुका नहीं पाया। मुझे घुटन हो रही थी कि अभी तो समय था, अभी मेरी सोची हुई बातें परवान चढ़नी थी...मेरे साथ ऐसा नहीं हो सकता! जब घुटन का कहीं कोई इलाज नहीं मिला तो माँ की तस्वीरों के साथ कुछ बातें लिख दीं। कलेजा से कुछ बोझ कम हुआ। अपने दर्द में मैं यह देख न पाया कि उन तस्वीरों में एक तस्वीर माँ के पार्थिव शरीर की भी अपलोड हो गई। जब तक वह तस्वीर हटाई तब तक वह कई जगह साझा हो चुकी थी। बस फिर क्या था सोशल मीडिया से वीडियो वेबसाइटों तक सब मेरा मज़ाक उड़ाने लगे, मुझ पर थूकने लगे कि कुछ लाइक्स, टिप्पणियों और लोगों का ध्यान खींचने के लिए मैं अपनी मरी माँ का सहारा ले रहा था। किसी ने ये तक कहा कि लड़कियों की सहानुभूति और उनसे दोस्ती बढ़ाने के लिए मैंने ऐसी गिरी हुई हरकत की। उन्हें क्या बताता...मेरी यह आदत अब मेरी बीमारी बन चुकी थी। न मेरे पास किसी करीबी दोस्त का कंधा था और न गला पकड़ती इस घुटन का कोई और त्वरित इलाज। मुझे माफ़ कर दो माँ!

मेरा नाम...कई नाम हैं मेरे! नहीं-नहीं भगवान नहीं हूँ। बस अपनी फ्रेंडलिस्ट में तो देखो एक बार, मैंने कहा ना...कई नाम हैं मेरे!

समाप्त!

Thursday, April 11, 2019

New Comic - Horror Diaries 3.2 (Fiction Comics)

Maut Neeti and Flight 279 in Horror Diaries 3.2 (Fiction Comics)

Cover page


Maut Neeti (Page 1)

Artist - Neeshu Chauhan

Only one tiny issue, these old scripts were in Hinglish and typist (...and editor) converting Hinglish to Devnagri font missed-mixed few spellings. Anyways, one more comic in print. Yay!

Sunday, March 10, 2019

What's New...

Gift from Google #LocalGuides
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New story published - Anubhav Magazine (March 2019) Yatra Visheshank
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Kind words by artist-author Shambhu Nath Mahto
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Poetry session, Lucknow
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News mentions, appearances...



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Great minds think alike… Langoor Peace Accord 1994, Sikandra (Akbar's Tomb)


 Memories
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February 2019 Chess24 stats
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New job, new city (Noida).
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