Freelance Falcon ~ Weird Jhola-Chhap thing ~ ज़हन

Saturday, July 13, 2019

शहर के पेड़ से उदास लगते हो...(नज़्म)

दबी जुबां में सही अपनी बात कहो,
सहते तो सब हैं...
...इसमें क्या नई बात भला!
जो दिन निकला है...हमेशा है ढला!
बड़ा बोझ सीने के पास रखते हो,
शहर के पेड़ से उदास लगते हो...

पलों को उड़ने दो उन्हें न रखना तोलकर,
लौट आयें जो परिंदों को यूँ ही रखना खोलकर।
पीले पन्नो की किताब कब तक रहेगी साथ भला,
नाकामियों का कश ले खुद का पुतला जला।
किसी पुराने चेहरे का नया सा नाम लगते हो,
शहर के पेड़ से उदास लगते हो...

साफ़ रखना है दामन और दुनियादारी भी चाहिए?
एक कोना पकड़िए तो दूजा गंवाइए...
खुशबू के पीछे भागना शौक नहीं,
इस उम्मीद में....
वो भीड़ में मिल जाए कहीं।
गुम चोट बने घूमों सराय में...
नींद में सच ही तो बकते हो,
शहर के पेड़ से उदास लगते हो...

फिर एक शाम ढ़ली,
नसीहतों की उम्र नहीं,
गली का मोड़ वही...
बंदिशों पर खुद जब बंदिश लगी,
ऐसे मौकों के लिए ही नक़ाब रखते हो?
शहर के पेड़ से उदास लगते हो...

बेदाग़ चेहरे पर मरती दुनिया क्या बात भला!
जिस्म के ज़ख्मों का इल्म उन्हें होने न दिया।
अब एक एहसान खुद पर कर दो,
चेहरा नोच कर जिस्म के निशान भर दो।
खुद से क्या खूब लड़ा करते हो,
शहर के पेड़ से उदास लगते हो...
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#ज़हन