Freelance Falcon ~ Weird Jhola-Chhap thing ~ ज़हन

Thursday, December 28, 2017

"काश मैं अमिताभ बच्चन का अंतर्मन होता..." (हास्य)


मैंने एक कहानी लिखी और मेरा अपने अंतर्मन से वार्तालाप शुरू हो गया। 

अंतर्मन - "छी! क्या है ये?"

मोहित - "कहानी है और क्या है?"

अंतर्मन - "ये सवाल जैसे जवाब देकर मेरा पैटर्न मत बिगाड़ा करों! 4/10 है ये...इस से तुम्हारा नाम जुड़ा हुआ है। पढ़ के लोग क्या कहेंगे?"

मोहित - "ठीक है, मैं कुछ चेंज करता हूँ।"

बार-बार बदलाव के बाद भी अंतर्मन पर कुछ ख़ास अंतर नहीं पड़ा...

अंतर्मन - "किसी सिद्ध मुनि का घुटना पड़ना चाहिए तुम्हारे खोपड़े पर तभी कुछ उम्मीद बनेगी। 4.75/10 हुआ अब!"

मोहित - "ये दशमलव की खेती का लाइसेंस कहाँ मिलता है? कहानी में सात बार बदलाव कर चुका हूँ। अब और शक्ति नहीं है।"

अंतर्मन - "हाँ तो मुझे क्यों बता रहे हो? कैप्सूल लो...जिसका एड पढ़ने में मज़ा आता है।"

मोहित - "मैं यही फाइनल कर रहा हूँ!"

अंतर्मन - "अरे यार तुम तो बिना बात गुस्सा हो जाते हो...रिलैक्स, अपना ही मन समझो! हमारा एक समझौता हुआ था। याद है? मैंने कहा था कि अगर मुझे कोई रचनात्मक काम 6/10 से नीचे लगेगा तो वो फाइनल नहीं होगा। तुमने लंबे समय तक माना भी वो नियम तो अब क्या दिक्कत है?"

मोहित - "इतनी टफ रेटिंग कौन करता है?"

अंतर्मन - "तेरे भले के लिए ही करता हूँ। तेरे नाम से जुड़े काम अच्छे लगें।"

मोहित - "भक! इस चक्कर में कितने आईडिया मारने पड़े मुझे पता है? आज से कोई नियम-समझौता नहीं!"

अंतर्मन - "काश मैं अमिताभ बच्चन का अंतर्मन होता।"

मोहित - "फिर पूरी ज़िन्दगी में 4 फिल्में करते अमिताभ साहब। इतना सर्व चूज़ी अंतर्मन लेके फँस जाते...कच्छों के डिज़ाइन तक में उलझ जाता है और बात अमित जी की करता है!"

अंतर्मन - "मतलब ये कहानी फाइनल है?"

मोहित - "हाँ! हाँ! हाँ!"

अंतर्मन - "एक मिनट, बाहर की शादी के शोर में सुना नहीं मैंने। ये 'हा हा हा' किया या तीन बार हाँ बोला?"

गुस्से में मोहित के जबड़े भींच गये। 

अंतर्मन - "अच्छा सुनो ना..."

मोहित - "हम्म?"

अंतर्मन - "6/10 हो सकता है। अंत में एक कविता जोड़ दो तो उसके ग्रेस मार्क्स मिलेंगे।"

मोहित - "इस कहानी के साथ काव्य का मतलब नहीं बनता और..."

अंतर्मन - "प्लीज ना जानू!"

मोहित - "अच्छा बाबा ठीक है। जाओ बाहर जाके खेलो और ज़्यादा दूर मत जाना।"

समाप्त!
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Art - Ester Conceiçao‎
#ज़हन

Wednesday, December 27, 2017

एक सीमान्त (लघुकथा)


नम्रता को उसके गायक पति शिबू भोला ने डेढ़ घंटे बाद फ़ोन करने की बात कही थी। बेचैनी में उसने जैसे डेढ़ घंटे के 5400 सेकण्ड्स पूरे होते ही शिबू को फ़ोन मिलाया। 

"हैलो!"

"हाँ हैलो...अभी गाड़ी में हूँ..."

...पर नम्रता को उस सब से कहाँ मतलब था। शिबू की आवाज़ से वो भांप भी चुकी थी कि कॉल जारी रखने से कोई परेशानी नहीं होगी। 

"क्या रहा?"

"हाँ, मेरे साथ 2 रिकॉर्डिंग करेंगे ये लोग।"

नम्रता चहक उठी। काफी समय से खाली और परेशान चल रहे शिबू को एक बार फिर काम मिल गया था। 

कुछ देर बाद शिबू की तेज़ आवाज़ सुनकर नम्रता बाहर आयी। शिबू अपनी बेल्ट से गेट के गार्ड को बुरी तरह पीट रहा था। गार्ड अपने रेडियो पर शिबू का ही मशहूर गाना सुन रहा था। नम्रता और ड्राइवर ने उसे रोका और अचानक इस गुस्से का कारण पूछा। शिबू भोला किसी बच्चे की तरह ज़मीन पर बैठकर रोने लगा। 

शिबू - "7 एल्बम आ गयी हैं! लेकिन बारह साल से सब $@#&*# बस एक हिट "चाइना की चुन्नी" गाना सुने जा रहे हैं और हर जगह मुझसे गवाए जा रहे हैं। ढाई सौ गाने रिकॉर्ड रखे हैं, उन्हें कोई म्यूजिक प्रोडूसर नहीं खरीदता। आज भी चाइना की चुन्नी के 2 रीमिक्स की रिकॉर्डिंग की डील मिली है। 7 रीमिक्स पहले ही हो चुके हैं। मन किया सूअरों को वहीं मार दूँ। फ़िर याद आया तू जो झूठा हँसते हुए इन्वेस्टमेंट, कूपन-डिस्काउंट फलाना की बातें करती है ना...वो साल-दो साल पहले तक तुझे पता भी नहीं था क्या होते हैं। तेरी झूठी हँसी में ढका दर्द हर रात मेरे सीने पर आ जाता है, फिर मैं करवट तक नहीं ले पाता। आज से 50 साल बाद कोई कहेगा की एक-दो गानों पर पूरी ज़िन्दगी रोटी खा गया...गाने तो मैं हज़ार बनाता पर दुनिया ने उस एक-दो के आगे कुछ सुनना ही नहीं चाहा..."

समाप्त!
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#ज़हन
Art - Felix Benjamin 

Saturday, December 23, 2017

जासूस सास (हास्य कहानी)


लक्ष्मी कुमारी स्वेटर बुनने से तेज़ गति से अपनी बहु पर विचार बुन रही थीं।  वैसे उनकी बहु शताक्षी ठीक थी....बल्कि जैसी कुलक्षणी, कलमुँही बहुएं टीवी और अख़बारों में दिखती हैं उनके सामने तो शताक्षी ठीक होने की पराकाष्ठा ही समझो। फिर भी लक्ष्मी को एक बात परेशान करती थी। केवल उन्हें ही नहीं, कॉलोनी की कुछ और सास भी इस मुद्दे पर चिंतित थीं। कई घरों की 25 से लेकर 40 साल की महिलाएं आपस में अक्सर झुंड में घंटों पता नहीं क्या बतियाती रहती थीं। बाहर से लगता कि मानो चुगलियों की कितने पहाड़ चढ़ रही हैं। बड़ा और सभी कोण से ढका घर होने के कारण अक्सर दर्जन भर स्त्रियां शताक्षी के घर पर डेरा जमाती। 

मोहल्ले की सासों से जब रहा नहीं गया और उनकी मिसमिसी का रौला-रप्पा हो गया तो सबने पैसे मिलाकर अच्छी क्वालिटी के माइक्रोफोन और कैमरे लक्ष्मी कुमारी के आँगन में लगवाये, जहाँ बहुओं की चुगलियों का गोरख धंधा चलता था। दो दिन बाद वीकेंड को बहुओं की मैराथन बैठक हुई। अगले दिन सत्संग का बहाना बनाकर वृद्ध जेम्स बांडनियाँ गुप्त अड्डे पर मिलीं। कॉलोनी की सासें अपनी साँसें थाम कर बहुओं की मीटिंग की फुटेज देखना शुरू करती हैं। 

"दीदी, कल छुटकी की वजह से छोटा भीम हार गया। मैं तो दूध उबलने रखने जा रही थी कि मीनू ने बताया कि कालिया को जीत कर टाइटल मिल गया। इतनी झुंझलाहट हुई कि मैं कच्चा दूध ही पी गयी और मीनू की अभ्यास पुस्तिका फाड़ी सो अलग..." 

"हाँ! इस वजह से कल पूरा दिन मेरा भी मूड ऑफ रहा। ऑफिस से लौटे पीकू के पापा पुच्ची करने को बढे तो ऐसी कोहनी मारी मैंने...नील पड़ गया उनके होंठों पर। हुँह! भला कालिया को जिताना कोई बात हुई?"

छोटा भीम पर गंभीर चर्चा के बीच शिवा कार्टून सीरीज की फैन शताक्षी बोली। 

"...पेड़ाराम ने अपनी पड़ोसन के चक्कर में शिवा का फूफा जो किडनैप करवाया उस से मेरा दिल बैठ गया सच्ची। अरे! आपने सुना...शक्तिमान को दोबारा शुरू कर रहे हैं।"

उसके बाद मोटू पतलू, माइटी राजू, गली गली सिम सिम, डोरेमॉन, शिनचैन पर शिद्दत से चर्चा हुई। इतना ही नहीं बीच-बीच में महिलाओं ने कार्टून सीरियल्स के मंगल गीत...टाइटल सांग भी गुनगुनाये। गृहणियों को जब फुर्सत मिलती थी तब टीवी के सामने बच्चे होते, जो कोई और चैनल चलने ही नहीं देते थे। कोई विकल्प ना होने के कारण थोड़े समय बाद कार्टून्स, एनिमेशन में बच्चों की तरह महिलाओं को भी मौज आने लगी और देखते ही देखते यह कार्टून क्रान्ति महिला मोर्चा बन गया। 

बहुओं की बुराई और गप्पों के लिए ब्रेड रोल, पकोड़े तल कर लायी एक सास निराशा में बोली। 

"भक..."

ये केवल एक 'भक' नहीं बल्कि 'खोदा पहाड़ निकली चुहिया' वाली हार की स्वीकृति थी। गुप्त फुटेज देख रही सास मंडली के सारे अंदेशों का मुरब्बा बन चुका था। धूलधूसरित पहलवान की तरह सब अपने कार्टूनी सत्संग से घर लौट आयीं। 

समाप्त! भक!
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Art - Sebastien K.
#ज़हन

Friday, December 22, 2017

काल्पनिक निष्पक्षता (कहानी)


"जगह देख कर ठहाका लगाया करो, वर्णित! तुम्हारे चक्कर में मेरी भी हँसी छूट जाती है। आज उस इंटरव्यू में कितनी मुश्किल से संभाला मैंने...हा हा हा।"

मशहूर टीवी चैनल और मीडिया हाउस के मालिक शेखर सूद ने दफ़्तर में अपनी धुन में चल रहे अपने लड़के वर्णित को रोककर कहा। 

वर्णित - "डैडी! आज हर इंटरव्यू में कैंडिडेट बोल रहे थे कि हमारे चैनल में वो इसलिए काम करना चाहते हैं क्योंकि हमारा चैनल निष्पक्ष है। उसपर आप जो धीर गंभीर भाव बनाते थे उन एक्सप्रेशंस को देख कर खुद को रोकना मुश्किल हो गया था।"

शेखर - "हप! मेरे हाथों पिटाई होगी तेरी किसी दिन। हा हा..."

पास ही कॉफ़ी ले रहा शेखर का छोटा लड़का शोभित समझ नहीं पा रहा था कि इसमें हँसने वाली क्या बात है। उसका चेहरा देख वर्णित ने उसे अपने केबिन में बुलाया। 

वर्णित - "क्या छुटकू! जोक समझ नहीं आया?"

शोभित - "हाँ भाई, हम तो एथिक्स वाली सच्ची, निष्पक्ष पत्रकारिता का हिस्सा हैं ना? सब यही बोलते हैं और सिर्फ हमें दिखाने को नहीं...जो लोग नहीं भी जानते मैं कौन हूँ, उनसे भी यही फीडबैक मिला है। यहाँ तक की अंतरराष्ट्रीय एजेंसीज़, यूट्यूब - सोशल मीडिया हर तरफ अधिकतर लोग हमारे मीडिया हाउस को ऐसा ही बोलते हैं। आपको तो सब दिखाता ही रहता हूँ मैं अक्सर..."

वर्णित - "इस सब्जेक्ट पर मैं तुझे समझाने वाला था, मुझे लगा तू खुद समझ जाये तो बेहतर होगा। कोई बात नहीं, पहली बात निष्पक्ष पत्रकारिता, एथिक्स वाला मीडिया नाम की कोई चीज़ नहीं होती। बस के खाई में गिरने से 5 लोगों की मौत जैसी प्लेन ख़बरों के अलावा बयान, घटना, विवरण, निष्कर्ष सब इस बात पर निर्भर करते हैं कि किस मीडिया में पैसे का स्रोत क्या है और ऊपर के मैनेजमेंट से कौन लोग जुड़े हैं।"

शोभित - "....लेकिन हम तो हर तरह की खबर लोगो के सामने लाते हैं। हर राजनैतिक दल, विचारधारा की अच्छी-बुरी बातें प्रकाशित करते हैं।"

वर्णित - "अरे भोले मानुस, ऐसा तुम्हें और जनता को लगता है बल्कि ऐसा हम 'लगवाते' हैं। किस पक्ष का कितना पॉजिटिव, कितना नेगेटिव सामने रखते हैं ये भी मायने रखता है। हमारा एक मॉडल है वो समझाता हूँ। हमारी प्रिंट न्यूज़ और टीवी चैनल का एक बड़ा हिस्सा न्यूट्रल, फील गुड़ या किसी सामाजिक कल्याण वाली बातों से जुड़ा होता है ताकि एक बड़ा वर्ग हमें देखे, खरीदे और उनके मन में हमारी अच्छी छवि बने। दूसरा भाग राजनीति, विचारधारा....सीधा बोलें तो लोगों में 'तेरा-मेरा' वाली बातें। अब अंदर की बात से समझो, शब्दी दल अपनी याड़ी पार्टी है और जो अपनेआप हमें उनकी विरोधी पार्टी महाक्रांति दल का एंटी बना देती है।"

शोभित - "पर..."

वर्णित - "ये लेकिन-पर को सर्जरी करवाकर निकलवा क्यों नहीं लेता तू? बार-बार का टंटा ख़त्म हो। सुन, अब हम क्या करते हैं, न्यूट्रल ख़बरों के बीच में अप्रत्यक्ष विश्लेषण और ख़बरों को काट-छांट कर शब्दी दल की सकारात्मक प्रेस और महाक्रांति की रेड़ मारती प्रेस। रिकॉर्ड के लिए इतना अनुपात ज़रूर रखते हैं कि कहने को हो सके कि देखो हम तो शब्दी दल की निंदा, उनपर सवाल उठाती न्यूज़ भी प्रकाश में लाते हैं। मैंने एक सॉफ्टवेयर बनवाया है अपनी वेबसाइट और चैनल के लिए। यह सॉफ्टवेयर समय और ख़बरों की संख्या के हिसाब से बताता है कि किस तरह खबरों के बीच में अपने एजेंडे वाली ख़बरें परोसनी हैं। लंबे समय तक ऐसा होने पर लोगों के मन में एक विचारधारा के प्रति पूर्वाग्रह, गलत बातें बैठ जाती हैं और दूसरे खेमे को बेनिफिट ऑफ़ डाउट मिलता रहता है। काम की बात ये है कि अपना पैसा और नाम बनता रहता है।"

यह सब सुनकर शोभित को तो जैसे अपना जीवन ही झूठ लगने लगा था। उसे आश्चर्य हुआ कि सम्मानित होते समय, लोगों से तारीफें सुनते हुए उसके पिता और बड़े भाई सीधा चेहरा कैसे रख लेते हैं। उसके विचारों को वर्णित के धक्के ने तोडा। 

वर्णित - "अच्छा अब तू कोई हीरो वाला स्टंट करने की तो नहीं सोच रहा ना? हमारा मीडिया हाउस सुधारने के लिए कैंपेन। मत सोचना! वो सब फिल्मों में होता है। यहाँ करेगा तो पापा तेरा वेज मंचूरियन बनवा देंगे।"

शोभित में अभी इतनी हिम्मत ही कहाँ थी? "शायद कुछ सालों बाद..." इतना सोच नज़रे झुकाकर शोभित अपने केबिन की तरफ बढ़ गया। 

समाप्त!
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 #ज़हन
Art - Eigeiter H.

Sunday, December 10, 2017

Educational-Horror Comic: Samaj Levak (Freelance Talents)

New experimental genre mix, समाज लेवक (Samaj Levak) - Social Leech (Educational-Horror Comic)
Illustrators: Anand Singh, Prakash Bhalavi (Bhagwant Bhalla), Author: Mohit Trendster, Colorist: Harendra Saini, Letterer: Youdhveer Singh
Also Available: Google Play, Google Books, Readwhere, Magzter, Dailyhunt, Ebook360 and other leading websites, mobile apps.
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#horror #comics #art #educational #india #mohitness #anandsingh #mohit_trendster #freelancetalents #harendrasaini #trendybaba #youdhveersingh #ज़हन #आनंदसिंह #मोहित #prakashbhalavi #freelance_talents #indiancomics

Friday, December 8, 2017

प्रतिक्रियाओं पर प्रतिक्रिया (सभी कलाकारों के लिए लेख) #ज़हन


हर प्रकार के रचनात्मक कार्य, कला को देखने वाले व्यक्ति की प्रतिक्रिया अलग होती है। यह प्रतिक्रिया उस व्यक्ति की पसंद, माहौल, लालन-पालन जैसी बातों पर निर्भर करती है। आम जनता हर रचनात्मक काम को 3 श्रेणियों में रखती है - अच्छा, ठीक-ठाक और बेकार। हाँ, कभी-कभार कोई काम "बहुत बढ़िया / ज़बरदस्त" हो जाता है और कोई काम "क्या सोच कर बना दिया? / महाबकवास" हो जाता है। रचनाकार को अधिकतर ऐसे ही रिव्यू मिलते हैं। 

इन रिव्यू से केवल ये पता लगाया जा सकता है कि फलाना श्रेणी का काम फलाना तरह के लोगों को पसंद या नापसंद आता है। उदाहरण - किसी निरक्षर व्यक्ति को गूढ़ वैज्ञानिक कमेंट्री वाला रोचक प्रोग्राम भी बेकार लगेगा या एक ख़ास अंदाज़ की कॉमेडी की आदत वाले दर्शकों को उस से अलग प्रयोगात्मक हास्य बेवकूफी लगेगा। कलाकार को ऐसे मत को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए। अगर आप व्यावसायिक काम कर रहें हैं तो अपने दर्शकों-श्रोताओं-पाठकों की पसंद समझने में ये डेटा काम आ सकता है। प्रयोग करते रहना और सही प्रतिक्रियाओं के अनुसार काम का अवलोकन करना महत्वपूर्ण है। आम फीडबैक के बीच-बीच में कलाकार के लिए खज़ाना यानी कंस्ट्रक्टिव रिव्यू छुपे होते हैं। ऐसी प्रतिक्रियाओं-समीक्षाओं को पहचानना आसान काम है। ये रिव्यू कुछ बड़े होते हैं और इनमें आम जेनेरिक मत से अलग बातें लिखी होती हैं। (यहाँ अक्सर किसी वेबसाइट की सामग्री (कंटेंट) बनाने की खानापूर्ति वाले या पेड रिव्यू की बात नहीं हो रही है।) उन बातों का अवलोकन कर कलाकार जान सकता है कि जो समूह उसकी कला समझ रहे हैं, उन्हें कला में क्या कमी, संभावनाएं दिख रही हैं जो कलाकार की नज़रों से बच गयीं। 

आमतौर पर प्रयोग को काफी नकारात्मक प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ता है। इसमें निराश होने वाली कोई बात नहीं है क्योकि प्रयोगों से ही हमें पता चलता है कि जितना ज्ञात संसार है उसके आगे क्या और कैसे किया जा सकता है। साथ ही निरंतर प्रयोग से कलाकार को अपनी खूबियों और कमियों का पता चलता है। अगली बार प्यार-मोहब्बत फीलगुड़, सास-बहु, लाइट एंटरटेनमेंट (इन श्रेणियों में भी कोई बुराई नहीं) की आदत वाली आम जनता को अगर उनकी आदत के अलावा कुछ परोसें तो सीमित अपेक्षा ही रखें। स्वयं से मुग्ध हुए बिना अपना अवलोकन करें, अगर आप ऐसा कर पाते हैं तो अपने सबसे सहायक समीक्षक आप खुद बन जाएंगे। 
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Thursday, December 7, 2017

हम सब (आंशिक) पागल हैं #लेख


मानसिक रूप से अस्थिर या गंभीर अवसाद में सामान्य से उल्टा व्यवहार करने वाले लोगों को पागल की श्रेणी में रखा जाता है। समाज के मानक अनुसार सामान्यता का प्रमाणपत्र लेना आसान है - आम व्यक्ति, अपनी आर्थिक/सामाजिक स्थिति अनुसार हरकतें और आम जीवन। इतनी परतों वाला जीवन क्या केवल दो श्रेणियों में बाँटा जा सकता है? मेरी एक थ्योरी है। हम सब पागल हैं। अंतर केवल इतना है कि किस हद तक, किन बातों पर, किस दशा-माहौल में और किन लोगो के साथ हम खुद पर नियंत्रण रख पाते हैं। अक्सर शांतचित रहने वाले लोगों को काफी छोटी बात पर बिफरते देखा है। वही लोग जिनका व्यवहार बड़ी विपदाओं में स्थिर रहता है। उस छोटी बात में ऐसा क्या ख़ास है जो ऐसी प्रतिक्रिया आयी? वह बात और उस से जुडी बातें एक पज़ल समीकरण के अधूरे हिस्से की तरह उस व्यक्ति के दिमाग में यूँ जाकर लगी कि बात ने सुप्त गुस्से के लिए ट्रिगर का काम किया। केवल गुस्सा ही नहीं बल्कि किसी चीज़, व्यक्ति के प्रति सनक या 'दीवानापन' होने पर भी व्यक्ति की पूरी प्रवृत्ति सामान्य से अलग लगने लगती है। 

अपने कम्फर्ट जोन-दिनचर्या की आदत बनाये व्यक्ति को लगता है कि वह अपनेआप को बहुत अच्छी तरह जानता है। स्वयं के अवलोकन के अभाव में ऐसे कई पहलु, कमियाँ और व्यवहार की असमानता हम देख नहीं पाते जो हमसे संपर्क में आये लोग अनुभव करते हैं। जब आपके साथ वैसी घटना हो जिसकी आपको आदत नहीं या जिसे आप नियंत्रित ना कर पाएं तो भी सामान्य चेहरे से अलग नयी अप्रत्याशित छवि दिखती है। जीवन की वर्तमान स्थिति अनुसार खुद को अलग-अलग "व्हॉट इफ" घटनाओं (ऐसा हो तो मैं क्या करूँगा) में सोच कर देखें। अगर सोच में अनियमितता लगे तो खुद को बदलने का प्रयास करें। अपने व्यवहार को अन्य व्यक्ति के स्थान पर होकर देखने की कोशिश करें। स्वयं के जीवन की फिल्म में मुख्य किरदार में रहें पर इतने आत्ममुग्ध ना हों कि अपनी आंशिक सनक, गुस्से, बेवकूफी को ही ना देख पाएं। आपके प्रियजन, मित्रों को आपकी आदत है और उनकी आपको इसलिए थोड़ा पागलपन सब झेल लेते हैं...बस ये ध्यान रखें कि उस थोड़े की सीमा को पार कर अन्य लोगो को परेशानी ना होने दें। 
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#ज़हन

Sunday, December 3, 2017

सड़ता हुआ मांस क्या कहेगा? (वीभत्स रस) #nazm #tribute


Revolutionary and Hindi writer Yashpal's 114th birth anniversary, The Government of India issued a commemorative Yashpal Centenary postage stamp (2003).
आज क्रांतिदूत, लेखक यशपाल जी का जन्मदिवस है। इस अवसर पर देशभर में कार्यक्रम आयोजित होते हैं। वैसे तो यशपाल जी हमें 41 वर्ष पहले छोड़ कर जा चुके हैं पर उनका लेखन अबतक देश का मार्गदर्शन करता रहा है और आगे जाने कितनी ही पीढ़ियों की उंगली पकड़कर उन्हें चलना सिखाता रहेगा। उनकी स्मृतियों को याद करते हुए उनके सुपुत्र आनंद जी बताते हैं कि वो लेखन को एक नौकरी की तरह नियम और समय से करते थे। अनेक शैलियों में लिखते हुए अगर उन्हें ऐसी बातों पर लिखना पड़ता जिनसे लोगो को घिन आती है या जिनपर बात करने से लोग बचते हैं तो वे निडरता से लिखते। वहीं आजकल अधिकतर लेखक, कवि खुद पर किसी लेबल लगने के डर से आम जनता के स्वादानुसार लिखने की कोशिश करते हैं। यशपाल जी काव्य नहीं लिखते थे पर हर कला की तरह पद्य में रूचि लेते थे। अपने रचे पागलपन की दौड़ में परेशान समाज की कुत्सित मानसिकता "अच्छा-अच्छा मेरा, छी-छी बाकी दुनिया का" पर चोट करती 'वीभत्स रस' में लिखी नज़्म-काव्य। यशपाल जी को मेरी नज़्म-काव्यांजलि। यह नज़्म आगामी कॉमिक 'समाज लेवक' में शामिल की है (आशा है मैं उनकी तरह निडरता से लिखना सीख सकूँ) नमन! -
सड़ता हुआ मांस क्या कहेगा?
सड़ता हुआ मांस क्या कहेगा? 
बिजबिजाते कीड़ों को सहेगा,
कभी अपनी बुलंद तारीख़ों पर हँसेगा,
कभी खुद को खा रही ज़मीं पर ताने कसेगा।

जब सब मुझे छोड़ गये,
साथ सिर्फ कीड़े रह गये,
सड़ती शख्सियत को पचाते,
मेरी मौत में अपनी ज़िन्दगी घोल गये।

आज जिनसे मुँह चुराते हो,
कल वो तुम्हारा मुखौटा खायेंगे,
इस अकड़ का क्या मोल रहेगा?
सड़ता हुआ मांस क्या कहेगा?

लोथड़ों से बात करना सीख लो,
बंद कमरों में दिल की तसल्ली तक चीख लो!
सड़ता हुआ मांस सुन लेगा, 
अगली दफ़ा तुम्हे चुन लेगा।

जिसे दिखाने का वायदा किया था हमसे,
वो गाँव तो हमारी लाश पर भी ना बसेगा।
खाल की परत फाड़ जब विषधर डसेगा,
सड़ता हुआ मांस क्या कहेगा?

जिसपर फिसले वो किसी का रक्त,
नाली में पैदा ही क्यों होते हैं ये कम्बख्त?
बाकी तो सब राम नाम सत!
उसपर मत रो... 
सुर्ख़ से काला पड़ गया जो,
ये जहां तो ऐसा ही रहेगा,
सड़ता हुआ मांस कुछ नहीं कहेगा!
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Sunday, November 26, 2017

"...और मैं अनूप जलोटा का सहपाठी भी था।"

*कलाकार श्री सत्यपाल सोनकर

पिछले शादी के सीज़न से ये आदत बनायी है कि पैसों के लिफाफे के साथ छोटी पेंटिंग उपहार में देता हूँ। पेंटिंग से मेरा मतलब फ्रेम हुआ प्रिंट पोस्टर या तस्वीर नहीं बल्कि हाथ से बनी कलाकृति है। पैसे अधिक खर्च होते हैं पर अच्छा लगता है कि किसी कलाकार को कुछ लाभ तो मिला। एक काम से घुमते हुए शहर की तंग गलियों में पहुँचा खरीदना कुछ था पर बिना बोर्ड की एक दुकान ने मेरा ध्यान खींचा जिसके अंदर कुछ कलाकृतियाँ और फ्रेम रखे हुए थे। सोचा पेंटिंग देख लेता हूँ। कुछ खरीदने से पहले एक बार ये ज़रूर देखता हूँ कि अभी जेब में कितने पैसे हैं या एटीएम कार्ड रखा है या नहीं। एक कॉन्फिडेंस सा रहता है कि चीज़ें कवर में हैं। किस्मत से जिस काम के लिए गया था उसको हटाकर जेब में 200-300 रुपये बचते और कार्ड भी नहीं था। अब पता नहीं इस तरफ कब आना हो। इस सोच में दुकान के बाहर जेब टटोल रहा था कि अंदर से एक बुज़ुर्ग आदमी ने मुझे बुलाया। 
अंदर प्रिंट पोस्टर, फ्रेम किये हुए कंप्यूटर प्रिंट रखे थे और उनके बीच पारम्परिक कलाकृतियाँ रखी हुई थीं। पोस्टर, प्रिंट चमक रहे थे वहीं हाथ की बनी पेंटिंग्स इधर-उधर एक के ऊपर एक धूमिल पड़ी थी जैसे वक़्त की मार से परेशान होकर कह रही हों कि 'देखो हम कितनी बदसूरत हो गयी हैं, अब हमें फ़ेंक दो या किसी कोने में छुपा कर रख दो...ऐसे नुमाइश पर मत लगाओ।' मैंने उन्हें कहा की मुझे एक पेंटिंग चाहिए। 
"मेरी ये पेंटिंग्स तो धुंधली लगती हैं बेटा! आप प्रिंट, पोस्टर ले जाओ।"
सुनने में लग रहा होगा कि इस वृद्ध कलाकार को अपनी कला पर विश्वास नहीं जो प्रिंट को कलाकृति के ऊपर तोल रहा है। जी नहीं! अगर उसे अपनी कला पर भरोसा ना होता तो वो कबका कला को छोड़ चुका। उसे कला पर विश्वास है पर शायद दुनिया पर नहीं। मैंने उन्हें अपनी मंशा समझायी और धीरे-धीरे अपने कामों में लगे उस व्यक्ति का पूरा ध्यान मुझपर आ गया। आँखों में चमक के साथ उन्होंने 2-3 पेंटिंग्स निकाली। 

"बारिश, धूप में बाकी के रंग मंद पड़ गये हैं। अभी ये ही कुछ ठीक बची हैं जो किसी को तोहफे में दे सकते हैं।" 

 मेरे पास समय था और उसका सदुपयोग इस से बेहतर क्या होता कि मैं इस कलाकार, सत्यपाल सोनकर की कहानी सुन लेता। 

1951 में चतुर्थ श्रेणी रेलवे कर्मचारी के यहाँ जन्म हुआ। सात बहनों के बाद हुए भाई और इनके बाद एक बहन, एक भाई और हुए। तब लोगो के इतने ही बच्चे हुआ करते थे। कला, रंग, संगीत में रुझान बचपन से था पर आस-पास कोई माहौल ही नहीं था। वो समय ऐसा था कि गुज़र-बसर करना ही एक हुनर था। कान्यकुब्ज कॉलेज (के.के.सी.) लखनऊ में कक्षा 6 में संगीत का कोर्स मिला जिसमें इनके सहपाठी थे मशहूर भजन, ग़ज़ल गायक श्री अनूप जलोटा। स्कूली और जिला स्तरीय आयोजनों, प्रतियोगिताओं में कभी अनूप आगे रहते तो कभी सत्यपाल। एक समय था जब शिक्षक कहते कि ये दोनों एक दिन बड़ा नाम करेंगे। उनकी कही आधी बात सच हुई और आधी नहीं। जहाँ अनूप जलोटा के सिर पर उनके पिता स्वर्गीय पुरुषोत्तम दास जलोटा का हाथ था, वहीं सत्य पाल जी की लगन ही उनकी मार्गनिर्देशक थी। पुरुषोत्तम दास जी अपने समय के प्रसिद्द शास्त्रीय संगीत गायक रहे जिन्होंने शास्त्रीय संगीत की कुछ विधाओं को भजन गायन में आज़माकर एक नया आयाम दिया। अनूप जलोटा ने संगीत की शिक्षा जारी रखते हुए लखनऊ के भातखंडे संगीत विश्वविद्यालय से डिग्री पूरी की, फिर लाखो-करोड़ो कैसेट-रिकार्ड्स बिके, भजन सम्राट की उपाधि, पद्म श्री मिला, बॉलीवुड-टीवी, देश-विदेश में कंसर्ट्स....और सत्यपाल? घर की आर्थिक स्थिति के कारण वो अपनी दसवीं तक पूरी नहीं कर पाये। 1968 में कारपेंटरी का कोर्स कर दुनिया से लड़ने निकल गये, जो लड़ाई आजतक चल रही है। रोटी की लड़ाई में सत्यपाल ने कला को मरने नहीं दिया। उनकी कला उनसे 5-7 बरस ही छोटी होगी। फ्रेमिंग का काम करते हुए कलाकृतियाँ बनाते रहे और बच्चों को पेंटिंग सिखाते रहे। 
*इस पेंटिंग को बनाने में लगभग 2 सप्ताह का समय लगा

"आप पेंटिंग सिखाने के कितने पैसे लेते हैं?"

"एक महीने का पांच सौ और मटेरियल बच्चे अलग से लाते हैं। जिनमें लगन है पर पैसे नहीं दे सकते उनसे कुछ नहीं लिया।"
कभी एक सतह पर खड़े दो लोग, आज एक के लिए अलग से प्राइवेट जेट तक आते हैं और एक खुले पैसे गिनने में हुई देर से टेम्पों वाले की चार बातें सुनता  है। कला के सानिध्य में संतुष्ट तो दोनों है पर एक दुनियादारी नाग के फन पर सवार है और एक उसका दंश झेल रहा है। सत्यपाल जी की संतोष वाली मुस्कराहट ही संतोष देती है। क्या ख्याल आया? पागल है जो मुस्कुरा रहा है? पागल नहीं है जीवन, कला और उन बड़ी बातों के प्यार में है जिनके इस छोटी सोच वाली दुनिया में कोई मायने नहीं है। क्या सत्यपाल हार गये? नहीं! वो पिछले 49 सालों से जीत रहे हैं और जी रहे हैं। अपने शिष्यों की कला में जाने कबतक जीते रहेंगे। 
ओह, बातों-बातों में इनकी चाय पी ली और समय भी खा लिया। अब दो-ढाई सौ रुपये में कौनसी ओरिजिनल पेंटिंग मिलेगी? एटीएम कार्ड लाना चाहिए था। कुछ संकोच से पेंटिंग का दाम पूछा। 

"75 रुपये!"

अरे मेरे भगवान! धरती फट जा और मुझे खुद में समा ले। क्या-क्या सोच रहा था मैं? सत्य पाल जी ने तो मेरी हर सोच तक को दो शब्दों से पस्त कर दिया। क्या बोलूँ, अब तो शब्द ही नहीं बचे। आज पहली बार मोल-भाव में पैसे बढ़ाने की कोशिश कर रहा था। मैंने कोशिश की पर उन्होंने एक पैसा नहीं बढ़ाया। मैंने बचे हुए पैसो की एक और थोड़ी बड़ी पेंटिंग खरीदी और वहाँ आते रहने का वायदा किया। आप सबसे निवेदन है कि डिजिटल, ट्रेडिशनल आदि किसी भी तरह और क्षेत्र के कलाकार से अगर आपका सामना हों तो अपने स्तर पर उनकी मदद करने की कोशिश करें। विवाह, जन्मदिन और बड़े अवसरों पर कलाकृति, हस्तशिल्प उपहार में देकर नया ट्रेंड शुरू करें। 

नशे से नज़र ना हटवा सके...
उन ज़ख्मों पर खाली वक़्त में हँस लेता हूँ,
मुफ़लिसी पर चंद तंज कस देता हूँ...
बरसों से एक नाव पर सवार हूँ,
शोर ज़्यादा करती है दुनिया जब...
उसकी ओट में सर रख सोता हूँ। 
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#ज़हन

Saturday, November 25, 2017

नयी कॉमिक - पगली प्रकृति (Vacuumed Sanctity Comic)


Comic: Pagli Prakriti - पगली प्रकृति (Vacuumed Sanctity), Hindi - 15 Pages. 
English version coming soon.
Google Play - https://goo.gl/Drp1Bs
Also available: Dailyhunt App, Google Books, Slideshare, Scribd, Ebooks360 etc.
Team - Abhilash Panda, Mohit Trendster, Shahab Khan, Amit Albert.
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नादान मानव की छोटी चालों पर भारी पड़ती प्रकृति की ज़रा सी करवट की कहानी...

Friday, November 24, 2017

यादों की तस्वीर (लघु-कहानी)


आज रश्मि के घर उसके कॉलेज की सहेलियों का जमावड़ा था। हर 15-20 दिनों में किसी एक सहेली के घर समय बिताना इस समूह का नियम था। आज रश्मि की माँ, सुमित्रा से 15 साल बड़ी मौसी भी घर में थीं। 

रश्मि - "देख कृतिका...तू ब्लैक-ब्लैक बताती रहती है मेरे बाल...धूप में पता चलता है। ये ब्राउन सा शेड नहीं आ रहा बालों में? इनका रंग नेचुरल ब्राउन है।"

कृतिका - " नहीं जी! इतना तो धूप में सभी के बालों का रंग लगता है।"

सुमित्रा बोली - "शायद दीदी से आया हो। इनके तो बिना धूप में देखे अंग्रेज़ों जैसे भूरे बाल थे। रंग भी एकदम दूध सा! आजकल वो कौनसी हीरोइन आती है...लंदन वाली? वैसी! "

जगह-जगह गंजेपन को छुपाते मौसी के सफ़ेद बाल और चेचक के निशानों से भरा धुंधला चेहरा माँ की बतायी तस्वीर से बहुत दूर थे। रश्मि का अपनी माँ और मौसी से इतना प्यार था कि वो रुकी नहीं... "क्या मम्मी आपकी दीदी हैं तो कुछ भी?" रश्मि की हँसी में उसकी सहेलियों की दबी हँसी मिल गयी। 

झेंप मिटाने को अपनी उम्रदराज़ बहन की आँखों में देख मुस्कुराती सुमित्रा जानती थी कि उसकी कही तस्वीर एकदम सही थी पर सिर्फ उसकी यादों में थी। 
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#ज़हन Artwork - Chuby M Art

Thursday, November 16, 2017

दो प्रकार के कलाकार (लेख) #freelance_talents

Artwork - Matt S.

एक कला क्षेत्र के प्रशंसक, उस से जुड़े हुए लोग उस क्षेत्र में 2 तरह के कलाकारों के नाम जानते हैं। पहली तरह के कलाकार जिनके किये काम कम हैं। फिर भी उन्होंने जितना किया है सब ऐसे स्तर से किया है कि प्रशंसकों, क्षेत्र के बाहर कई लोगों को उनके बारे में अच्छी जानकारी है। दूसरी तरह के कलाकारों के काम की संख्या बहुत अधिक है पर उनके औसत काम की पहुँच कम है। उदाहरण - मान लीजिए कलाकार #01 ने एक नामी प्रकाशन में इंटर्नशिप की और वहाँ उसे बड़े प्रकाशनों के साथ काम करने का अवसर मिला। उसने अपने जीवनकाल में 31 पुस्तकों में चित्रांकन किया और बड़े प्रकाशन में छपने के कारण उसकी हर पुस्तक के चर्चे देश-दुनियाभर में हुए। साथ ही बड़े नाम के कारण उसकी कलाकृतियों की कई प्रदर्शनियाँ लगीं। अब मिलिए कलाकार #02 से जो बचपन से कला बना रहा है। सीमित साधनों, अवसरों के बीच कुछ स्थानीय प्रकाशनों के साथ लगातार काम कर रहा है। उसे अब खुद याद नहीं कि उसने कला में अपने जीवन के कितने करोड़ क्षणों की आहुति दी है। कभी-कभार इंटरनेट या किसी प्रदर्शनी में वायरल हुई कलाकृति से उसका नाम उस क्षेत्र में रूचि रखने वाले लोगों को दिख जाता है। सालों-साल 15-20 बार यह नाम सुनकर लोग कह देते हैं कि "हाँ, कहीं सुना हुआ लग रहा है ये नाम..." बस ये कुछ सांत्वना मिल जाती है। बाकी क्षेत्र के बाहर तो इतना भी दिलासा नहीं। कलाकृतियों की संख्या और कला में प्रयोग, विविधता की तुलना करें तो कलाकार #02 ने अपने जीवन में जितना काम किया है उसमे से 36 कलाकार #01 निकल आयें। 

कलाकार #01 को घनत्व/नाम/भाग्य श्रेणी और कलाकार #02 को वॉल्यूम (मात्रा) बेस्ड श्रेणी में रखा जा सकता है। ज़रूरी नहीं पूरे जीवन कोई एक श्रेणी में रहे पर अधिकांश कलाकार एक ही श्रेणी में अपना जीवन बिता देते हैं। कई लोगों का तर्क होता है कि अगर किसी में अपने काम को लेकर लगन-पैशन, एकाग्रता है तो उसे सफलता मिलती है बाकी बातें केवल बहाने हैं। यह बात आंशिक सच है पूरी नहीं। यहाँ दोनों श्रेणी के कलाकार सफल हैं। पहला कलाकार अपनी मार्केटिंग और पैसे के मामले में सफल हुआ है लेकिन कला की साधना के मामले में दूसरा कलाकार सफल है, उसके लिए तो यही सफलता है कि सारे जीवन वह कला में लीन रहे। अब ये देखने वाले पर है कि वह दुनियादारी में रहकर देख रहा है या दुनियादारी से ऊपर उठकर। ध्यान देने योग्य बात ये कि कई असफल लोग भाग्य को दोष देते हुए खुद को मात्रा बेस्ड (कलाकार #02) की श्रेणी में मान लेते हैं जबकि उसके लिए भी कई वर्षों की मेहनत लगती है। दो-चार साल या और कम समय कहीं हाथ आज़मा किस्मत को दोष देकर वो क्षेत्र छोड़ देने वाले व्यक्ति को इन दीर्घकालिक श्रेणियों में नहीं गिना जा सकता। 

यहाँ किसी को सही या ग़लत नहीं कहा जा रहा। जीवन के असंख्य समीकरण कब किसको कहाँ ले जायें कहा नहीं जा सकता। अगर आप किसी भी तरह की कला चाहे वो संगीत, लेखन, काव्य, नृत्य, पेंटिंग आदि में रूचि लेते हैं तो कोशिश करें की अपनी तरफ से अधिक से अधिक वॉल्यूम बेस्ड श्रेणी के कलाकारों के काम तक पहुँचे, उन्हें प्रोत्साहित करें, अन्य लोगों को उनके बारे में बतायें क्योकि उनकी कला आपतक आने की बहुत कम सम्भावना है। बड़े मंच के सहारे कलाकार #01 का काम तो आप तक आ ही जायेगा। 
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Tuesday, November 14, 2017

इंटरनेटिया बहस के मादक प्रकार (व्यंग लेख) #ज़हन


दो या अधिक लोगों, गुटों में किसी विषय पर मतभेद होने की स्थिति के बाद वाली चिल्ल-पों को बहस कहते हैं। वैसे कभी-कभी तो विषय की ज़रुरत ही नहीं पड़ती है। दूसरी पार्टी से पुराने बैकलॉग की खुन्नस ही बिना मतलब की बहस करवा देती है। बहस में उलझे लोगों के व्यक्तित्व निर्भर करते हैं कि बहस अनियंत्रित होकर उनकी नींदें ख़राब करेगी, पुलिस में रिपोर्ट करवायेगी, ऑनलाइन माध्यम से जूते-घुसंड तक की नौबत आ जायेगी या दूसरे मत का सम्मान करते हुए बात 2-4 मिनट बाद भुला दी जायेगी। इंटरनेटिया बहस और बहस करने वालों के कई प्रकार हैं....इतने हैं कि लेखक को खुद नहीं पता कितने हैं। जितने पता हैं उनपर मंथन शुरू करते हैं। 

*) - धप्पा बहस - इस बहस में पड़ने वालो के पास बहस के लिए समय नहीं होता पर बहस में पड़ने का अद्भुत नशा वो छोड़ना नहीं चाहते। जिसपर उन्हें गुस्सा आ रहा होता है उन्हें एक या दो रिप्लाई का धप्पा मारकर ये लोग निकल जाते हैं। नोटिफिकेशन नहीं आई तो ये बहस जीत गये और अगर आई तो इन्होने तो अपनी तरफ से धप्पा का फ़र्ज़ निभा दिया न? तो भी ये स्वयं को जीता हुआ मान लेते हैं। 

*) - लिहाज़ बहस - इस बहस को कर रहे लोग ऐसे बंधन या मजबूरी मे होते हैं कि खुलकर सामने वाले को कुछ कह नहीं सकते। कहना तो दूर सार्वजनिक प्लेटफार्म पर कन्विंसिंग रूप से हरा भी नहीं सकते। जैसे कोई व्यापारी और उसका पुराना क्लाइंट, फूफा जी जिनका घर में अक्सर आना होता है, स्कूल का जिगरी यार आदि। लिहाज़ बहस में बातों का दंश तोड़ दिया जाता है कि काटना बस औपचारिकता लगती है, उल्टा पोपले दंश से सामने वाले को गुलगुली होती है। 

*) - शान में गुस्ताख़ी बहस - दुनिया में ऐसे भी लोग हैं जिन्हे लगता है कि उनके जन्म पर ग्रहों का यूँ सधा अलाइनमेंट हुआ कि वो कभी ग़लत हो ही नहीं सकते। उनसे मत भिन्न होना आपके विचार नहीं हैं बल्कि एक महापाप है। "पृथ्वी को भगवान की देन...हमसे बहस!" इस महापाप की सज़ा देने का प्रण लेते हैं और बहस के बाहर आपके पीछे पड़ जाते हैं। बिना बहस के अगर उन्हें उनकी मान्यता से नयी या अलग जानकारी मिलती है तो उनके ट्रांसमीटर की रेंज हाथ जोड़ लेती है। अगर वो अपने सर्किल में सबसे ऊपर हैं तो पूरा जीवन दम्भ में गुज़र जाता है। 

*) - लाचार बहस - एक व्यक्ति के पास अपना संतुलित दिमाग है। उसने आम मुद्दों पर अपना मत बना रखा है पर बॉस, घरवाले, प्रेमी-प्रेमिका के दबाव में उसे मजबूरी में बहस में कूदना पड़ता हैं। कई बार तो ऐसे झगडे में जिसमे उसे सामने वाली पार्टी की बात ज़्यादा सही लग रही होती है। ऐसा लगता है कि 2 मुँह एक ही बात बोल रहे हैं। अगर करीबी व्यक्ति को उसका पासवर्ड पता है तो वह अपने प्रियजन की ओर से खुद को वोट तक डाल आता है। 

*) - छद्म बहस - कुछ लोग अपना खाली समय ऑनलाइन और असल जीवन में गुर्गे बनाने में लगाते हैं। धीरे-धीरे ये लोग अपने बड़े समूह के सदस्यों का ऐसा स्नेह जीतते हैं कि फिर ये बहस में सीधे नहीं पड़ते। सही भी तो है, कौन अपना समय बर्बाद करे? ये लोग अपने सिपाहियों को लड़ने भेजते हैं। इतना ही नहीं अगर सिपाही नौसिखिया हो या जंग हार रहा हो तो उसके गुरु मैसेज और फ़ोन पर उससे अपना अनुभव बाँटकर विजयी बनाते हैं। बाहरी दुनिया के लिए इनकी छवि एक सुलझे हुए, निष्पक्ष व्यक्ति की होती है जबकि अंदर ही अंदर ये पूरा कण्ट्रोल रूम चलाने का आनंद ले रहे होते हैं। 

*) - ग़लतफ़हमी बहस - अगर ग़लत या कम जानकारी की वजह से कोई बहस में पड़ जाये तो सार्वजानिक माफ़ी माँगना भारी लगने लगता है। अब अपना चेहरा बचाने के लिए वह तरह-तरह के ध्यान बँटाऊ टैक्टिस अपनाते हैं। हालाँकि, कुछ लोग संभल जाते हैं पर कई पुरानी गलतियों से सीख ना लेते हुए ग़लतफ़हमी में धूल धूसरित हो अपनी छवि ही ग़लत बनवा बैठते हैं। 


*) - टाइमपास बहस - जीवन से निर्वाण प्राप्त करने के बाद बहुत कम चीज़ें बचती हैं जो एक व्यक्ति को सांसारिक मोह में बाँधे रखती हैं। ज़िन्दगी के हर पहलु से बोर होने के बाद एक ख़ास प्रजाति के लोग बहस कला साधना में लीन होना चाहते हैं। इसके लिए एक सेल्स पर्सन की तरह वो जगह-जगह अपनी बहस की पिच देते हैं और 10 में से एक-दो लोग उनकी कामनापूर्ति कर उनके दिन का रियाज़ करवाते हैं। 

*) - अनुसंधान बहस - हज़ारों लोगो के सामने बार-बार मुँह की खाने के बाद भी कइयों की भूख नहीं मरती। कुछ को हारने की ज़रुरत नहीं पड़ती उनके अंदर कुछ डिग्री का ओ.सी.डी. होता है। तो ये लोग मुद्दों के अलावा बहस में आने वाले संभावित लोगो की जाँच-पड़ताल करते हैं। जैसे कोई व्यस्त रहता है, कोई कम पढ़ा-लिखा है, कोई एक विषय पर एक बार समझाने के बाद वापस नहीं आता, किसी को फलाना क्षेत्र की कम जानकारी है, कोई इस जगह नहीं गया आदि। इस जानकारी के आधार पर कुशल कारीगर की तरह ये अपनी बहस के तर्क बनाते हैं। चाहे इनका मत सही हो या गलत पर कालजयी रिसर्च से बहस के मामले में इनका विन-लॉस रिकॉर्ड बड़ा अच्छा हो जाता है। 

*) - पिकी बहस - मान लीजिये किसी मुद्दे से जुड़े 10 बिन्दुओं में से पाँच साहब #01 के सही हैं और पाँच पर साहब #02 की बातें भारी हैं। अब साहब #01 क्या करते हैं कि अपने सही बिन्दु चुन, हर बिन्दु के सहारे महल खड़ा कर उन्ही पर बातें बढ़ाने के प्रपंच रचते हैं। बाकी साहब #02 की सही बातें गयीं गन्ने की मशीन में...जैसे बचपन में बच्चे को नहलाते हुए मम्मी-पापा बोलते हैं - "अच्छी-अच्छी बाबू की! छी-छी कौवे की!" बड़ो की उस बात को ये ऐसी दिल से लगते हैं कि  हमेशा अपनी अच्छी-अच्छी के गिफ्ट, शाबाशी लेने कूद पड़ते हैं लेकिन छी-छी की ज़िम्मेदारी नहीं लेते। 

इनके अलावा अनगिनत बहसों में ऑफ-टॉपिक बहस जिसमें बातों की धारा का कहाँ से बहकर कहाँ चली जाना, ऑनलाइन ट्रोल सेनाओं की महाभारत बहस, हफ्तों चलने वाली टेस्ट मैच बहस आदि शामिल हैं। अंत में यही सलाह है कि अगर बातें आपराधिक, हिंसा भड़काने वाली नहीं हैं तो दूसरों के विचारों का सम्मान करना सीखें। जैसे संभव है एक व्यक्ति किसी छोटे उद्देश्य में लगा हो जिसके लिए दुनिया में काफी कम लोग चाहिए हों पर इसका मतलब ये नहीं अपने बड़े उद्देश्य (जिसके पीछे करोड़ों लोग हैं) की आड़ लेकर आप उसका उपहास उड़ायें या उसके काम को मान्यता ही ना दें। जीवन को समय दें कोई आपकी बहस जीतने-हारने का स्कोर नहीं रख रहा।  
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Wednesday, November 1, 2017

माँ सरस्वती की शिष्या: स्वर्गीय गिरिजा देवी


1949 में आकाशवाणी, इलाहाबाद में अपनी पहली सार्वजनिक प्रस्तुति देने के बाद, पिछले लगभग सात दशकों से विश्वभर में हिंदुस्तानी शास्त्रीय-उपशास्त्रीय संगीत का परचम में लहरा रहीं पद्म विभूषण गायिका गिरिजा देवी का कोलकाता में (24 अक्टूबर, 2017) दिल का दौरा पड़ने से देहांत हो गया। शायद आप उनका नाम पहली बार सुन रहे हों या कहीं सुना-सुना सा लग रहा हो। अगर हाँ...तो इसमें पूरा दोष आपका नहीं है। कला दो प्रकार की होती है। पहली कला जो आम लोगो के पास आती है और दूसरी कला जिसके पास लोगो को जाना पड़ता है, मतलब यह कि एक कला का आनंद लेने के लिए लोगो को अधिक जानकारी की ज़रुरत नहीं पड़ती जबकि दूसरी कला का रस पीने के लिए पहले उस से जुडी कई बातें समझनी पड़ती है। जैसे 100/200 मीटर दौड़ को कोई भी समझ सकता है जबकि बेसबॉल को समझने के लिए पहले उसके अनेक नियमों, अंको का अर्जन आदि को समझना होगा। शास्त्रीय संगीत ऐसी ही कला है जिसका आनंद लेने के लिए पहले उस से जुड़े स्वर, विधाएँ, घरानों, यंत्र आदि को समझना पड़ता है। वहीं फ़िल्मी संगीत अक्सर अपनी सतह पर धुन, वैरायटी परोस देता है तो सुनने वालो को ज़्यादा दिमाग नहीं लगाना पड़ता। यही वजह है कि हम जितना पॉप, रॉक, फ़िल्मी संगीत के सितारों को जानते हैं उतना शास्त्रीय संगीत के गायक, संगीतज्ञों को नहीं जानते। बॉलीवुड या अब यूट्यूब में 2-4 गानों के बाद ही गायकों की फॉलोइंग लाखों-करोड़ों में पहुँच जाती है। ऐसी पहचान का अंश भर पाने के लिए शास्त्रीय संगीत के साधकों को दशकों साधना करनी पड़ती है।  

अपनों द्वारा गिरिजा जी को प्यार से 'अप्पा जी' कहा जाता था और जीवन के लंबे सफर में अप्पा जी कई शिष्यों, श्रोताओं के लिए अपनी हो गई थीं। वैसे तो उन्हें ठुमरी का चेहरा कहा गया पर उप-शास्त्रीय संगीत, पूरब-अंग गायन की कई विधाओं में उन्हें महारत हासिल थी। ठुमरी, दादरा, छंद, ख्याल, टप्प, कजरी, चैती-होली आदि में उनके कुशल, मोहक गायन का जादू दिखता है। 

बनारस संगीत के दो नामी संगीतज्ञों श्री सरजू प्रसाद मिश्र और श्री चंद मिश्र की छाँव में अप्पा जी ने संगीत ही नहीं हर तरह के गायन से पहले मन में वैसे भाव लाने, वाद्ययंत्रो के साथ तालमेल बैठाने की बारीकी सीखी। वर्षों की मेहनत से मिले कण उन्होंने अपने शिष्यों को प्रदान किये पर शायद फिर भी कुछ कण उनके साथ लोम हो गये। ठुमरी की महारानी! प्रेम के अनगिनत भावों को तराशती हुई वो स्वयं ठुमरी में खो जाती थीं। उनके जीवनकाल में राधा-कृष्णा के प्रेम से लेकर आज के युग की उपमाओं तक ठुमरी का रस बिखरता रहा। अपने गायन में वो वासना, फूहड़पन, ज़बरदस्ती के विद्रोह से दूर शान्ति के भाव रखती थीं। ऐसी शान्ति जिसमे साधक और श्रोता दोनों संसार भूलकर खो जाएँ। 

गिरिजा जी को फ्यूज़न (विलय) संगीत से परहेज़ था। उनका मानना था कि अधिक शोर के साथ काव्य को बारीकी से गाना बहुत कठिन है। इस वजह से वो फ्यूज़न बैंड्स द्वारा भेजे गये निमंत्रणों को स्वीकार नहीं करती थी। गिरिजा जी ख्याल और ठुमरी की कभी तुलना नहीं करती थीं। वो कहती कि एक तरफ राग, लय की आत्मा है जबकि एक तरफ मनोरम काव्य पंक्तियों की राह है और दोनों ही अपने में पूर्ण हैं। उनके परिवार का झुकाव काव्य की तरफ था इसलिए उनकी रूचि भी ठुमरी में अधिक रही। जब नये ज़माने में ठुमरी को तुलनात्मक आसान विधा कहा जाने लगा तो गिरिजा जी ने ख्याल की कठिन पगडंडियों का रियाज़ कर कुछ इस तरह साधा कि कोई उनपर सवाल ना कर सके। अपनी हर प्रस्तुति, कॉन्सर्ट में उन्होंने ख्याल विधा को भी शामिल किया। गिरिजा जी खुद को देवी सरस्वती (ज्ञान और ललित कला की देवी) की सेविका मानती थी। उनके अनुसार वो स्वयं को माँ सरस्वती की शिष्या होने लायक बना रही थीं। आशा है गिरिजा जी के शिष्य उनकी दिखायी राह पर चलकर भारतीय शास्त्रीय संगीत में योगदान देंगे और अब गिरिजा जी माँ सरस्वती के सानिध्य में तीनो लोकों को अपनी ठुमरी से मोहित कर रही होंगी। नमन!
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#ज़हन
(Wrote this article for Roobaru Duniya App)

Monday, October 2, 2017

Vigayapan War (Fan Comic)


इस बार राज कॉमिक्स की कॉमेडी के दो स्तम्भ गमराज और फाइटर टोड्स आमने सामने हैं। हाथापाई के साथ-साथ दोनों में छिड़ी है कॉर्पोरेट वॉर ! पेश है एक अभूतपूर्व फैन वर्क ''विज्ञापन वॉर'' 
Artwork: Anuj Kumar
Story: Mohit Sharma
Coloring and Calligraphy: Shahab Khan
जल्द ही अन्य वेबसाइटस पर भी उपलब्ध होगी।

Thursday, September 28, 2017

समाज को तोड़ती समूह वाली मानसिकता (लेख) #ज़हन


प्राकृतिक और सामाजिक कारणों से हम सभी की पहचान कुछ समूहों से जुड़ जाती है। उदाहरण के लिए एक इंसान की पहचान कुछ यूँ - महिला, भारतीय, अच्छा कद, गेहुँआ रंग, शहरी (दिल्ली निवासी), प्रौढ़, सॉफ्टवेयर क्षेत्र में काम करने वाली, हिन्दू (दलित), मध्यमवर्गीय परिवार आदि। अब पूरा जीवन इन समूहों और उनसे निकले उप-समूहों को जीते हुए उस महिला के मन में इन सबके बारे में काफी अधिक जानकारी आ जाती है जबकि बाकी दुनिया के अनगिनत दूसरे समूहों के बारे में उसे ऊपरी या कम जानकारी होती है। ऐसी ऊपरी जानकारी पर उसके साथ समूह साझा कर रहे लोग नमक-मिर्च लगा कर ऐसा माहौल बनाते हैं कि अधिकांश लोग धीरे-धीरे मानने लगते हैं कि वो जिन समूहों से हैं, दुनिया की सबसे ज़्यादा चुनौतियाँ सिर्फ उन्हें ही देखनी पड़ती हैं और उनका समूह सर्वश्रेष्ठ है। दुनिया की हर खबर, बात, मुद्दे पर वो अपने समूहों के हिसाब से विचार बनाते हैं। 

जहाँ वो महिला कई पुरुषों द्वारा गोरे वर्ण की स्त्रियों को वरीयता देने की समस्या को समझेगी, वहीं खुद छोटे कद के या पतले पुरुषों का सहेलियों में मज़ाक उड़ाने या उन्हें वरीयता ना दिए जाने की गलत बात पर दोबारा सोचेगी भी नहीं। जहाँ उसे सॉफ्टवेयर दुनिया का सबसे कठिन क्षेत्र लगेगा, वहीं अपने पिता द्वारा दिवाली पर डाकिये को दिए इनाम पर वह सवाल करेगी कि साल में 2-4 बार तो आता है (पर उसे यह नहीं पता या शायद वह जानना नहीं चाहती कि इस डाकिया के ज़िम्मे डेढ़ हज़ार हज़ार घर और सौ दफ्तर हैं)। कभी सवाल करने पर वह रक्षात्मक होकर अपने समूह पर अनगिनत रटी हुई दलीलें सुना देगी...बिना यह समझे की संघर्ष तो सबके जीवन में है; कई बार उसके नज़रिये से 'गिफ़्टेड' या 'कम मेहनत' वाले समूहों से जुड़े लोगो में उसके समूहों से अधिक। यह मानसिकता लेकर व्यक्ति जीवनभर कुढ़ता रहता है। मन ही मन ऐसे अनेक लोगो से दूर हो जाता है जिनसे उसका अच्छा नाता बन सकता था और दोनों एक दूसरे के बहुत काम आ सकते थे। एक संभावना यह बनती है कि आपको अपना मित्र पसंद है बस उसकी कुछ बातें नहीं पसंद क्योंकि वो 'कुछ बातें' उसके अंदर दूसरे समूहों से आई हैं, जिनमे आप नहीं हो।  

इस सामाजिक अनुकूलन (सोशल कंडीशनिंग) के जाल से बाहर आकर ही समाज में निष्पक्ष, सकारात्मक योगदान देना संभव है। यहाँ ये मतलब नहीं कि अपने समूह के अधिकारों, बातों पर आवाज़ ना उठायी जाए; पर ऐसा करते हुए बिना जांचे गलत बातों-अफवाहों को बढ़ावा देना, अन्य आवाज़ों को अनसुना करनाउनको अपनी बड़ी कालजयी पहल के आगे छोटा मानना या भ्रान्ति में जीना गलत है। समूहों की तुलना में भावनाओं के बजाय तर्कों और इतिहास की घटनाओं से बने वर्तमान समीकरण के अनुसार बात करना बेहतर है।  
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