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Wednesday, November 1, 2017

माँ सरस्वती की शिष्या: स्वर्गीय गिरिजा देवी


1949 में आकाशवाणी, इलाहाबाद में अपनी पहली सार्वजनिक प्रस्तुति देने के बाद, पिछले लगभग सात दशकों से विश्वभर में हिंदुस्तानी शास्त्रीय-उपशास्त्रीय संगीत का परचम में लहरा रहीं पद्म विभूषण गायिका गिरिजा देवी का कोलकाता में (24 अक्टूबर, 2017) दिल का दौरा पड़ने से देहांत हो गया। शायद आप उनका नाम पहली बार सुन रहे हों या कहीं सुना-सुना सा लग रहा हो। अगर हाँ...तो इसमें पूरा दोष आपका नहीं है। कला दो प्रकार की होती है। पहली कला जो आम लोगो के पास आती है और दूसरी कला जिसके पास लोगो को जाना पड़ता है, मतलब यह कि एक कला का आनंद लेने के लिए लोगो को अधिक जानकारी की ज़रुरत नहीं पड़ती जबकि दूसरी कला का रस पीने के लिए पहले उस से जुडी कई बातें समझनी पड़ती है। जैसे 100/200 मीटर दौड़ को कोई भी समझ सकता है जबकि बेसबॉल को समझने के लिए पहले उसके अनेक नियमों, अंको का अर्जन आदि को समझना होगा। शास्त्रीय संगीत ऐसी ही कला है जिसका आनंद लेने के लिए पहले उस से जुड़े स्वर, विधाएँ, घरानों, यंत्र आदि को समझना पड़ता है। वहीं फ़िल्मी संगीत अक्सर अपनी सतह पर धुन, वैरायटी परोस देता है तो सुनने वालो को ज़्यादा दिमाग नहीं लगाना पड़ता। यही वजह है कि हम जितना पॉप, रॉक, फ़िल्मी संगीत के सितारों को जानते हैं उतना शास्त्रीय संगीत के गायक, संगीतज्ञों को नहीं जानते। बॉलीवुड या अब यूट्यूब में 2-4 गानों के बाद ही गायकों की फॉलोइंग लाखों-करोड़ों में पहुँच जाती है। ऐसी पहचान का अंश भर पाने के लिए शास्त्रीय संगीत के साधकों को दशकों साधना करनी पड़ती है।  

अपनों द्वारा गिरिजा जी को प्यार से 'अप्पा जी' कहा जाता था और जीवन के लंबे सफर में अप्पा जी कई शिष्यों, श्रोताओं के लिए अपनी हो गई थीं। वैसे तो उन्हें ठुमरी का चेहरा कहा गया पर उप-शास्त्रीय संगीत, पूरब-अंग गायन की कई विधाओं में उन्हें महारत हासिल थी। ठुमरी, दादरा, छंद, ख्याल, टप्प, कजरी, चैती-होली आदि में उनके कुशल, मोहक गायन का जादू दिखता है। 

बनारस संगीत के दो नामी संगीतज्ञों श्री सरजू प्रसाद मिश्र और श्री चंद मिश्र की छाँव में अप्पा जी ने संगीत ही नहीं हर तरह के गायन से पहले मन में वैसे भाव लाने, वाद्ययंत्रो के साथ तालमेल बैठाने की बारीकी सीखी। वर्षों की मेहनत से मिले कण उन्होंने अपने शिष्यों को प्रदान किये पर शायद फिर भी कुछ कण उनके साथ लोम हो गये। ठुमरी की महारानी! प्रेम के अनगिनत भावों को तराशती हुई वो स्वयं ठुमरी में खो जाती थीं। उनके जीवनकाल में राधा-कृष्णा के प्रेम से लेकर आज के युग की उपमाओं तक ठुमरी का रस बिखरता रहा। अपने गायन में वो वासना, फूहड़पन, ज़बरदस्ती के विद्रोह से दूर शान्ति के भाव रखती थीं। ऐसी शान्ति जिसमे साधक और श्रोता दोनों संसार भूलकर खो जाएँ। 

गिरिजा जी को फ्यूज़न (विलय) संगीत से परहेज़ था। उनका मानना था कि अधिक शोर के साथ काव्य को बारीकी से गाना बहुत कठिन है। इस वजह से वो फ्यूज़न बैंड्स द्वारा भेजे गये निमंत्रणों को स्वीकार नहीं करती थी। गिरिजा जी ख्याल और ठुमरी की कभी तुलना नहीं करती थीं। वो कहती कि एक तरफ राग, लय की आत्मा है जबकि एक तरफ मनोरम काव्य पंक्तियों की राह है और दोनों ही अपने में पूर्ण हैं। उनके परिवार का झुकाव काव्य की तरफ था इसलिए उनकी रूचि भी ठुमरी में अधिक रही। जब नये ज़माने में ठुमरी को तुलनात्मक आसान विधा कहा जाने लगा तो गिरिजा जी ने ख्याल की कठिन पगडंडियों का रियाज़ कर कुछ इस तरह साधा कि कोई उनपर सवाल ना कर सके। अपनी हर प्रस्तुति, कॉन्सर्ट में उन्होंने ख्याल विधा को भी शामिल किया। गिरिजा जी खुद को देवी सरस्वती (ज्ञान और ललित कला की देवी) की सेविका मानती थी। उनके अनुसार वो स्वयं को माँ सरस्वती की शिष्या होने लायक बना रही थीं। आशा है गिरिजा जी के शिष्य उनकी दिखायी राह पर चलकर भारतीय शास्त्रीय संगीत में योगदान देंगे और अब गिरिजा जी माँ सरस्वती के सानिध्य में तीनो लोकों को अपनी ठुमरी से मोहित कर रही होंगी। नमन!
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#ज़हन
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1 comment:

  1. प्रिय मोहित जी ------ हालाँकि मैं शास्त्रीय संगीत से अधिक वाकिफ नहीं पर सुरों की महारानी गिरिजा देवी के संगीत के क्षेत्र में अनंत योगदान और उनके कालजयी गायन से परिचित हूँ | उनके बारे में लिखा आपका ये आलेख बहुत ज्ञानवर्धक है | सचमुच परम पूजनीया गिरिजा देवी माँ सरस्वती की शिष्या नहीं बल्कि उनका ही दुसरा रूप थी | संगीत में उनके अतुलनीय योगदान को कभी भुलाया नहीं जा सकेगा और ना ही उनके जाने से हुए रिक्त हुए स्थान को कोई भर पायेगा | उनकी पुण्य स्मृति को शत - शत नमन !!!!!! और आपको साधुवाद इस लेख के लिए !!!!!!!!!

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