Freelance Falcon ~ Weird Jhola-Chhap thing ~ ज़हन

Tuesday, November 5, 2013

Roobaru Duniya November 2013 (Cover Story)


The cover story is on Men's Rights & related issues. (2 articles) On stands now! E-magazine available on magazine website & allied networks.

पुरुषों से सौतेला मीडिया

मीडिया की पुरुषों से खुंदक पुरानी है, क्योकि पत्रकारिता में सबसे आसान काम निंदा करना या कोसना है। इसको आप ऐसे लीजिये जैसे ओलिंपिक में हमारे अख़बार देश के किसी खिलाडी के अंतिम आठ में आने को भी को बड़ी कवरेज देते है और बाकी देशो को तालिका में छोटा सा कोना मिलता है। जब तुलना होती है तो पुरुष-स्त्रियों में यह अपनेपन का बर्ताव स्त्रियों से जुड़े मामलो में होता आ रहा है। अब जब इतनी संस्था, उत्पाद जुड़े महिलाओं से तो पत्रकारिता और मनोरंजन के दुसरे माध्यमो पर भी इसका असर हुआ। ख़ास महिलाओं के लिए कॉलम्स, पत्रिकाएँ, रिपोर्ट्स, टेलीविजन शोज़, जर्नल्स, पुरस्कारों की संख्या हजारो-लाखो में है जिनके लिए पुरुषों से सम्बंधित हर पहलु को कोसना पहला नियम है और पुरुषों के मुद्दे अछूत है। ये अनुपात दस और नब्बे का नहीं है, बल्कि ये अनुपात है ही नहीं, इस लेख की तरह गाहे-बगाहे कुछ आ गया तो वो इतने विशालकाय समाज में ना के बराबर है। जो आप बार-बार देखेंगे, पढेंगे तो उसका लाज़मी असर आपकी सोच पर भी होगा। एक तरफ की समस्या आपको विकराल लगेंगी और एक तरफ की हास्यास्पद, गौर ना करने लायक। 

मसलन जानलेवा प्रोस्टेट कैंसर केवल पुरुषों में होता है और उस से होने वाली मौतें लगभग उतनी ही होती है जितनी स्तन कैंसर से होती है। स्तन कैंसर पर जागरूकता के लिए सरकार, निजी कंपनियों द्वारा पोषित कई तरह के जागरूकता अभियान चलाये जाते है, शिविर लगाये जाते है, फंड्स जुटाए जाते है वहीँ प्रोस्टेट कैंसर के लिए कुछ नहीं किया जाता। क्यों? क्योकि वो तो पुरुषों को होता है और एक पुरुष की मौत या दर्द किसी के लिए कहाँ मायने रखता है? शायद पढ़ रहे पाठको में से कईयों ने प्रोस्टेट कैंसर का नाम भी पहली बार सुना होगा। यही हाल दूसरी चिकित्सीय सेवाओं और सोच का है, जैसे किशोरावस्था में आ रहे बदलावों की काउंसलिंग मुख्यतः लड़कियों तक सीमित रहती है। लडको को समझाना ज़रूरी नहीं समझा जाता जिस वजह से कुछ किशोर गलत लोगो या साधनों में आकर गलत कामो को स्वाभाविक और सही समझकर उसी रूप मे ढल जाते है। 

मीडिया का पक्षपात यहीं तक सीमित नहीं रहता। तोड़मरोड़ कर अधूरी बातों के उदाहरण देखते है। कितना बुरा लगता है जब सुनते है की भारत में हर 3 मिनट्स में एक महिला के साथ कोई अपराध होता है, क्या कभी आपको ये बताया गया की उन्ही 3 मिनट्स 6-7 पुरुष भी जघन्य अपराध का सामना करते है, अधिकतर वो पुरुष जो सामान्य जीवन जीते है और जिनका आपराधिक रिकॉर्ड नहीं होता। क्या कभी इस दिशा में कुछ किया गया? क्या कभी ये सुनकर आपकी मुट्ठी वैसे भिंची जैसे तीन मिनट्स में एक महिला पर अपराध सुनकर भींच जाती है?  एक गधे और इंसान की तुलना की जायेगी तो हज़ार में 15-20 बातों की तुलना में एक गधा भी इंसान से बेहतर निकलेगा। तो क्या पुरुषों और महिलाओं की तुलना मे कई बातों में आदमी को औरत पर प्राकर्तिक बढ़त नहीं होगी? पर इतने सारे सर्वे, रिसर्च डाटा में जनता के सामने सिर्फ वही तथ्य क्यों आते है जिनमे महिलायें पुरुषों से बेहतर हों? याद कीजिये आपको किसी भी बड़े सार्वजनिक सूचना साधन से ऐसी खबर मिली हो जिसमे तुलनात्मक आदमी आगे हों। शायद नहीं मिली। क्या समाज इतना रक्षात्मक बन गया है की ऐसी तुलना जो स्त्रियों के विपरीत आये वो भी पक्षपात है? 

जैसे कुछ अनुसंधानों के द्वारा पता चला की दर्द सहने की क्षमता स्त्रियों मे पुरुषों से अधिक होती है, जिसको अलग अलग मीडिया माध्यमो से प्रचारित किया गया। साथ ही इंटेलिजेंट कोशिएंट यानी बोद्धिक स्तर के मामले में हुए अनुसंधानों में एक औसत पुरुष को एक औसत महिला से कुछ पॉइंट्स ज्यादा प्राप्त हुए पर क्या ये नतीजे उस स्तर पर प्रसारित हुए? यहाँ भी इस बात को नारी जाती के अपमान की तरह लिया गया को भेदभाव का चोगा ओढ़ा कर आया-गया कर दिया गया। एक समाजसेवी संस्था द्वारा आयोजित पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम में स्कूली बच्चो द्वारा भाग लिया गया। अगले दिन अखबारों में "गर्ल पॉवर" नाम से कॉलम में प्रतिभागी छात्रों के फोटो और संक्षिप्त साक्षात्कार थे और छात्रो की संख्या भर लिख दी गयी, यानी जहाँ ज़रुरत नहीं होती  वहां भी ज़बरदस्ती ऐसे कोण ठूसे जातें है। सांख्यिकी और गढ़े गए तथ्यों का गलत इस्तेमाल भी बड़े स्तर पर होता है। पुराने मुद्दों के प्रचार में जब सेचुरेशन आने लगा तब  कोई नयी चौकाने वाली खबर बनाने के लिए भारत से कुछ संगठनो ने ये खबर फैलाई भारत में हर साल 25000 से ज्यादा स्त्रियाँ सती प्रथा कुरीति की भेंट चढ़ती है। विदेशो में इसकी निंदा हुयी पर किसी ने इसकी प्रमाणिकता की जांच नहीं की। असल में यह सामाजिक कुरीति अब भारत से लगभग विलुप्त हो चुकी है जिसपर कड़े कानून है, हिन्दू ग्रंथो में भी कलियुग में इस प्रथा को नहीं करना लिखा है और कुछ सालो में इक्का-दुक्का मामला होता है। यानी संस्थाओं ने पैसे और नाम के लालच में एक तथ्य को हजारो लाखो गुना बढ़ा कर रख दिया और सब इस पुरुषप्रधान समाज पर चढ़ बैठे बिना जांचे। इसमें मीडिया साधनों का भी बराबर का दोष है। साथ ही 2011 की जनगढना में लिंगानुपात 933/1000 से 940/1000 बढ़कर हुआ और एक दशक में की 125 करोड़ आबादी वाले देश में ये 7/1000 की वृद्धि किसी चमत्कार से कम नहीं है पर अगर आप चाहो की हजारो सालो से हुआ अंतर कुछ दशको में मिट जाए और हर बार जनगढना के बाद अंतर को रोते रहो तो वो संभव नहीं। 

यह तो बस कुछ उधाहरण भर है। ऐसा कदम-कदम पर होता है, कोई भी मीडिया साधन देख लीजिये चुनिंदा ख़बरें जहाँ अक्सर सिर्फ एक पक्ष को रखा जाता है और दूसरे पक्ष के अस्तित्व को नकार कर फैसला सुना दिया जाता है।  मै मीडिया पर इतना जोर दे रहा हूँ क्योकि इस स्तम्भ  से ही जनता की सोच पर असर पड़ता है, कानून बनते है, संसद, न्यायपालिका, विचारधाराओं और आंदोलनों पर मीडिया की गहरी छाप रहती है। पत्रकारिता और सम्बंधित माध्यमो में निष्पक्ष लोग भी है पर एक बड़ा और प्रभावशाली पक्ष व्यापारिक सोच रखे हुए भौतिक लोभ में फंसा अपने कर्तव्य से दूर है। आशा है अगली बार जब आप किसी ऐसी खबर से रूबरू होंगे तो मन में फैसला सुनाने से पहले सभी तथ्य, पक्ष और पहलुओं की जाँच करेंगे। 

समाज और पुरुष - छद्म सत्य 

हमारा नजरिया, सोच और पसंद अक्सर तुलनात्मक बातों से निर्धारित हो जाती है। जब ऐसी तुलना वर्गों की होती है तो भी हम उन्हें एक इकाई की तरह देखते है जबकि एक वर्ग मे हर तरह के व्यक्ति होते है जो अपने जीवन में तरह-तरह की समस्याओं से झूझते है। इस लेख के ज़रिये समाज के आधे हिस्से पुरुष वर्ग से जुड़े कुछ मुद्दे और समस्याओं पर प्रकाश डालने की कोशिश की गयी है। इसका मतलब यह नहीं कि महिलाओं की समस्याएँ कमतर है या ज़रूरी नहीं, इसका मतलब बस इतना है की सरकार, मीडिया, जनता और निजी संस्थानों का ध्यान दोनों वर्गों के घाव बन रहे मुद्दों के उन्मूलन पर होना चाहिए न की सिर्फ एक पर। साथ ही समस्याओं का समाधान साथ मिलकर आसानी से हो सकता है, एक वर्ग के कुछ प्रतिशत उदाहरण लेकर पूरे वर्ग को कोसने से नहीं। आशा है इस लेख से आपकी जानकारी बढ़ेगी और अगली बार लिंग आधारित बात पर आप इन तथ्यों को भी संज्ञान में रख कर अपनी राय बनायें। 

सोच 

जब ऐसे  विषय लोग सुनते है तो वो मानने से इनकार कर देते है कि पुरुषों की समस्याएँ हो सकती है। कुछ हँसते है, कुछ सवाल करते है, कुछ फिर से अधूरे तुलनात्मक तथ्य रख देते है जो उन्हें मीडिया द्वारा सालों-दशकों से पिलाये जाते है। अब इस अधूरी धुरी पर पूरी स्थिति का अवलोकन कैसे किया जा सकता है? पर दुर्भाग्य से ऐसा अक्सर होता है। मुद्दों से पहले यह एक सामान्य बुद्धि बात बता दूँ की दुनिया में लगभग 3.80 अरब पुरुषों की समस्याएँ नहीं होंगी जो सिर्फ उन्ही तक सीमित हों, क्या ऐसा संब संभव है? जी नहीं! साथ ही एक पुरुष के अपराध के पीछे जाँच करना ज़रूरी नहीं समझा जाता, और सामने किया गया अपराध रख दिया जाता है जबकि कई मामलो में स्त्रियों को अपराधी मानने से ही इनकार कर दिया जाता है। अपराध साबित होने पर उसकी वजहें ढूँढी जाने लगती है। इस सोच की वजह से कितने ही लोगो का उत्पीडन होता है और कितने ही अपराधी लचीलेपन का फायदा उठा लेते है। हर पहलु में यह अंतर करती सोच गहरी पैठ कर चुकी है। 

शुरुआत नारीवाद आन्दोलन से हुयी। जिसका उद्देश्य महिलाओं के प्रति भेद-भाव मिटाना और उन्हें समान अवसर देना था। इसके तहत समाज में कई सराहनीय बदलाव हुए पर धीरे धीरे इस आन्दोलन से अवसरवादी और लालची लोग जुड़ गये और ये आन्दोलन दिशा भटक गया।  जैसे भारत मे बीस लाख से ज्यादा स्वयंसेवी संस्थायें है जो महिलाओं के उत्थान के लिए काम कर रही है पर ज़रा सोचिये यानी हर 317 महिलाओं पर एक संस्था, अगर यह सभी संस्थायें वाकई काम करें तो महिलाओं की समस्याएँ कितनी कम हो जायें पर इनमे से ज़्यादातर कागजों पर चलती है जो बस रिपोर्ट्स, सर्वे और अपने मीडिया लिंक्स मे असली के साथ-साथ कई तथ्य, साक्ष्य खुद से गढ़ कर पेश करते रहते है ताकि उन्हें जनता, सरकार, विदेशो या कॉर्पोरेट साधनों से आर्थिक, सामाजिक लाभ मिलता रहे। दुख यह है की उनके इस व्यापर को हर तरफ से समर्थन मिलता है और उसपर सवाल उठाने वालों को छोटी, अविकसित सोच का तमगा मिल जाता है। कुछ प्रतिशत संस्थाओं का अच्छा काम इतने बड़े देश में बहुत छोटा दिखाई पड़ता है। 

कानूनी अड़चने और भेदभाव 

जिन महिलाओं की स्थिति सुधारने के लिए कानून बनाये जाते है उनमे से कई अशिक्षा और जागरूकता की कमी से उन तक तो फायदा पहुँचता नहीं अलबत्ता एक बड़ा तबका जो साक्षर है, आत्मनिर्भर बन सकता है है वो लालचवश, विवादों में इनका गलत इस्तेमाल करता है। एक महिला का दावा काफी होता है किसी बलात्कार, दहेज़ उत्पीडन, शोषण की बड़ी खबर बनने पर बाद में अगर वो दावा सच साबित नहीं होता तो मीडिया उस तरह खबर का खंडन नहीं करता जितनी बड़ी हेडलाइंस दावे पर बनती है। इतने तबको  में विभाजित समाज पर एक कानून लगाना कई बार एकतरफा बात हो जाती है। किसी पूरे परिवार का भविष्य, आमदनी खतरे में डाल अगर आरोप झूठा साबित होता है तो महिला को किसी प्रकार की सजा का प्रावधान नहीं है। 498A दहेज़ विरोधी कानून पर उच्चतम न्यायलय ने भी टिपण्णी दी की इसके सही उपयोग से कहीं ज्यादा इसका दुरूपयोग होता है जिसमे लाखो-करोडो परिवार बर्बाद हो चुके है। इसी तरह घरेलु हिंसा, संस्थाओं में यौन शोषण के गढ़े गए मामले सामने आये है जिनसे केवल विडियो फूटेज द्वारा बचा जा सका यानी किसी दर्ज साक्ष्य के बिना ऐसे संगीन  आरोप से बचना बहुत मुश्किल है और लालचवश आरोप लगाने वाली स्त्रियों को चेतावनी देकर छोड़ दिया जाता है। इस जटिल दुनिया में ये बाइनरी मोड क्यों? क्या कुछ और सुधारों की ज़रुरत नहीं? 

एक जैसे अपराधो पर दोनों लिंगो को मिली सजा में भी बड़ा अंतर है। मुकदमा शुरू होने से पहले ही एक के किये अपराधों को स्वाभाविक प्रवृति  मान लिया जाता है जबकि एक के किये अपराधो में ज़बरदस्ती उसकी मजबूरी खोजी जाती है। वो भी आज के समय में जहाँ किसी के बारे मे फ़िल्मी पूर्वाभास करना अनुचित और गलत साबित होता है। 

जिस दिन निर्भया/दामिनी सामूहिक बलात्कार हत्याकांड हुआ उसके बाद जनता मे काफी रोष था, ये एक अच्छा संकेत था जिस वजह से अपराधी जल्दी पकडे गए और अब उन्हें मृत्युदंड ही मिलना चाहिए। एक जघन्य अपराध पर जनता का इस तरह जागना शुभ संकेत था जिस कारण व्यवस्था पर जोर पड़ा। पर क्या आपको पता है उस दिन गुजरात में एक व्यक्ति की 2 महिलाओं ने हत्या की फिर उसको 16 टुकडो में काट दिया, अब इस अपराध पर बहुत से लोग बिना कुछ जाने मृत पुरुष से सहानुभूति जताने के बजाये पहली प्रतिक्रिया यह देंगे ज़रूर उस आदमी ने कुछ किया होगा। कितनी शर्म की बात है! ये पैसो के लालच में एक अमीर स्टोक ब्रोकर की परिचितों द्वारा हत्या थी। आप दूसरो की दकियानूसी सोच बदलने पर जोर देते है, कभी ज़रा इन मामलों मे ऊपर उठकर फ़ैसला नहीं दे सकते? मै यह नहीं कह रहा की उस व्यक्ति उस व्यक्ति के लिए भी देश भर में  कैंडल मार्च निकाले जाए या महीनो तक मीडिया द्वारा कहानी का फॉलो अप किया जाये पर कम से कम ऐसे मामलो में बिना जाने यह तो न बोला जाए की जिसपर अपराध हुआ है गलती उसी की होगी। थोडा बहुत मीडिया में भी उस खबर को तवज्जो दी जानी चाहिए थी। सबसे बड़ी विडंबना यह है की वो दोनों महिलायें 12 साल बाद जेल से छुट जायेंगी। क्या उनकी जगह अगर दो पुरुष होते और मरने वाली एक महिला तो भी ऐसी ही सजा होती और राष्ट्रिय स्तर पर कोई खबर न बनती? 

अक्सर आप देखेंगे की कोई महिला कुछ आपत्तिजनक कह देती है या अपराधिक कृत्य करती है पर उसपर प्रतिक्रिया नहीं होती जैसी वैसा ही काम, कथन किसी आदमी के द्वारा होता तो होती है। आप कहेंगे ऐसा बहुत कम होता है पर ऐसा अक्सर होता है बस आपकी सोच अपने हिसाब से मामले दर्ज करती है। जैसे राखी सावंत के टॉक शो में खुद पर हुए एक कथन की वो नपुंसक है से दुखी एक ग्रामीण युवक ने आत्महत्या कर ली, अगर कोई पुरुष सेलिब्रिटी ऐसा कथन दे किसी ग्रामीण महिला को की वो बांझ  है तो उसका करियर तो डूबेगा ही, साथ ही उसकी हर तरफ निंदा होगी और उसपर दर्जनों केस दर्ज होंगे। सिर्फ बांझ कहने पर, और अगर उस महिला ने शुब्ध होकर आत्महत्या कर ली तब तो उस सेलिब्रिटी का नक़्शे से अंत ही समझिये। होता अच्छी मात्रा सब कुछ है बस जनता वही देखना चाहती है जो उसको पढाया, सिखाया जाता है। बाकी बातें अपनी सुविधानुसार स्वाहा कर देती है फिर तर्क दिए जाते है की ऐसा तो कुछ होता ही नहीं समाज में जो चिंता की जाये। यह दोहरे मापदंड क्यों? 

आरक्षण, संवैधानिक लाभ 

भारत एक विविध राष्ट्र है जहाँ 2 वर्गों (स्त्री-पुरुष) में कई विभाजन किये जा सकते है और एक जैसा कानून या फायदे सबपर लागू करना करोडो के अन्याय करना होगा। पारिवारिक और सामाजिक रूप से संपन्न लड़कियों को आथिक और सामाजिक रूप से पिछड़े लडको पर कोटा, आरक्षण दिया जाना भी जायज़ नहीं। संविधान को अपने मायने बदलने होंगे समय के साथ। राजनैतिक आरक्षण का  हाल किसी से छुपा नहीं है जहाँ अपने परिवार की और रिश्तेदार महिलाओं को सीट दे दी जाती है राजनैतिक घरानों द्वारा। यहाँ औसत सांख्यिकी को देखा जाता है जैसे किसी सर्वे के अनुसार औसत पुरुष के 1 रुपया कमाने पर औसत स्त्री 77 पैसे कमाती है पर यहाँ भी सिर्फ एकतरफा पहलु रखे जाते है। यहाँ यह नहीं बताया जाता की काम से होने वाली 95% मौतें और गंभीर बिमारियों का शिकार पुरुष होते है। राष्ट्रिय औसत अनुसार स्थान विशेष की निति बनाना गलत है। 

 तलाक, संपत्ति और बच्चो पर अधिकार

सामाजिक परिवर्तन के साथ ये पाया गया है की आर्थिक रूप से मज़बूत अभिभावक बेहतर परवरिश और माहौल दे सकता है फिर भी बहुत कम मामलो में पुरुषो को किसी कानूनी विवाद में बच्चो पर अधिकार मिल पाता है। बाहरी न्यायपालिका तो संयुक्त परवरिश के भी कम फैसले सुनाती  है। बिना माँ-बाप को जाने केवल पुराने मामलो के उदाहरण देकर ऐसा करना बदलते सामाजिक परिवेश में जायज़ नहीं है। कानून मे आये बदलावों के अनुसार तलाक के मामलो में "साक्षर", "आत्मनिर्भर" स्त्रियाँ पति की आमदनी के बड़े हिस्से की अनुचित गुज़ारे भत्ते और उसकी अपनी कमाई और पैतृक संपत्ति की मांग करती है चाहे शादी कई सालो तक चली हो या कुछ हफ्तों मे टूट गयी हो। 
गलती अगर लड़की पक्ष की भी हो तो घरेलु हिंसा, दहेज़, शारीरिक उत्पीडन आदि के आरोप तो है ही साथ देने के लिए। और कानूनन गलत को सही साबित करने के लिए। 

स्वास्थ्य सेवाएँ और कार्यक्रम 

महिलाओं के स्वास्थ्य, काउंसलिंग आदि जुडी सेवाओं पर सरकार, निजी संस्थानों, स्वयं सेवी संथाओं और संयुक्त राष्ट्र जैसी बड़ी अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं निरंतर काम करती है, जागरूकता भी फैलाती है पर पुरुषों में होने वाली बिमारियों या वो डिफेक्ट जो पुरुषों मे अधिक होते है उनपर अलग से उतना धन, परिश्रम और ध्यान नहीं दिया जाता। प्रजनन अधिकार पूरी तरह से महिलाओं को है अगर पिता चाहता है की बच्चा हो और माँ नहीं चाहती तो वो गर्भपात करा सकती है जबकि अगर पिता गर्भपात   चाहता है और माँ बच्चे को जन्म देती है तो उस बच्चे की परवरिश का खर्च पिता के जिम्मे होगा चाहे पिता की आर्थिक स्थिति जैसी भी हो। 

अन्य मुद्दों में पितृत्व छल, अनिवार्य रूप से फ़ौज की सेवा, स्थान विशेष के कानून जैसे और भी कई मामलें है जो पुरुषों तक सीमित है। 

किसी भी तरह का सामाजिक कार्य अच्छा होता है। नारीवाद के अच्छे पहलु है, कई स्वयं सेवी संस्थायें बुनियादी स्तर से बेहद सराहनीय काम कर रही है। मैंने अपने जीवन के कुछ साल ऐसी ही नारीवादी संस्थाओं को दिए है और आगे भी देता रहूँगा। बस मेरा तर्क यह है की न्याय के लिए संघर्ष वर्गानुसार सीमित नहीं होना चाहिए।  पर जैसा सोच बदलने का नारा उनके द्वारा दिया जाता है वैसे ही उन्हें भी अपनी सोच मे तबदीली लानी होगी। सोचने के तरीके और नज़रिए पर इतने फिल्टर्स लगा कर सही निर्णय नहीं लिया जा सकता। बिना सोचे समझे पूर्वाग्रहों, धारणाओं को आधार न बनायें। ज़रूरी नहीं कोई विरोधाभासी बात गलत ही हों कोई बीच का रास्ता भी निकाला जा सकता है। एक सच यह है की नारीवादी मांगो का कोई ऑफ बटन नहीं है, जैसे अमेरिका में पहले कॉलेज में छात्र और छात्राओ के अनुपात पर और संपत्ति मे पुरुषों के वर्चस्व पर आपत्ति थी। अब वहां 60% स्त्रियाँ है कॉलेजस का हिस्सा है, संपत्ति पर भी अब महिलाओं का अधिकार ज्यादा है, अब जब यह मिल गया तो बड़े-छोटे पहलु खोज-खोज कर अंतर खुद से गढ़े या खोजे जा रहे है। पर समानता तो 50% पर होती है, अब यह बदला अनुपात क्या पुरुषो के साथ भेद भाव नहीं? बल्कि कुछ नारीवादियों को तो और शेयर चाहिए और जहाँ  भी अनुपात स्त्रियों के पक्ष मे झुका हो उसको नारी सशक्तिकरण का नाम दिया जाता है। यहाँ भी दोगलापन? अगर आपकी नीतियों से अलग-अलग क्षेत्रो में 2 वर्गों के अनुपात मे ऐसे विशाल अंतर बन रहे है तो वो सशक्तिकरण नहीं बल्कि पक्षपात है। 

आशा करता हूँ की अगर करोडो लोग एक दिशा में काम कर रहे है और कुछ लोग एक अलग दिशा में समाज में बदलाव के लिए कार्यरत है तो वो करोडो लोगो की जनता उन कुछ लोगो के कार्य पर सवाल, संदेह या हास्य नहीं करेगी क्योकि समानता का मतलब एक पलड़े को ज़बरदस्ती झुकाना नहीं बल्कि साथ मिलकर कांटे को स्थिर करना होता है। समाज मे बदलाव स्त्री-पुरुष वर्गों के मिलकर चलने से आयेगा, एक वर्ग को कोसने से नहीं। यहाँ लिखते हुए मैंने जितने प्रश्नचिन्ह इस्तेमाल किये है उतने पहले एक जगह कभी नहीं किये यह भी आशा है ये प्रश्नचिन्ह सकारात्मक सुधारों के साथ मिट जायेंगे। 

हर साल 8 मार्च को महिला दिवस मै हर्ष से मनाता हूँ और अपने जीवन और समाज मे संघर्ष कर रही महिलाओं को शुभकामनायें देता हूँ, और उनके विशाल योगदानो के लिए उनका शुक्रिया करता हूँ। पर साथ ही मै 19 नवम्बर को पुरुष दिवस मनाता हूँ सभी अच्छे पुरुषो के असीम योगदान का  धन्यवाद करते हुए। किसी चैनल या अखबार-पत्रिका से तो यह खबर मिलेगी नहीं पर उम्मीद है इस साल आप भी उन पुरुषों को सेलिब्रेट करेंगे जो समाज में अपराधिक तत्वों (जिनको इतनी फुटेज दी जाती है) से कई गुना ज्यादा है और जिन्हें युवाओं का आदर्श बनाया जाना चाहिये। हैप्पी मेन्स डे! 


- Mohit Sharma (Trendy Baba)

No comments:

Post a Comment