Freelance Falcon ~ Weird Jhola-Chhap thing ~ ज़हन

Monday, December 5, 2011

Poetic Comics Editorial # 03 (Behri Duniya)



”बहरी दुनिया” रैगिंग पर आधारित एक संदेश है, यह कविता मैंने 2006 मे लिखी थी तब यह समस्या अब के मुकाबले बड़ी थी। भारत में पिछले दो दशकों में जागरूकता के स्तर मे काफी सुधार हुआ है। पहले की तुलना में अब शिक्षा की अहमियत समझी जा रही है पर इस सुधार के अलावा तेज़ी से बढती जनसँख्या की वजह से बड़ी डिग्रीयां भी जीवन यापन के लिये विषम होती जा रहे समाज मे छोटी पड़ रहीं है। विज्ञानं, कला और इनके अंतर्गत पढ़ायी जाने वाली बातों पर तो शासन और जनता का ध्यान रहता है पर डिग्री पाकर पैसा कमाने की होड़ मे मानव मूल्यों का महत्व घट रहा है और यही रैगिंग जैसे सामाजिक अभिशाप के पनपने का कारण है।
रैगिंग जो आज बन गयी उसका प्रारंभिक अर्थ कुछ और था, यानी अपने जूनियर विद्यार्थियों को नये माहौल से सहज करना और उनसे जान पहचान बढ़ाना ताकि भविष्य मे छात्र किसी ज़रुरत में एक दूसरे के काम आ सके। अक्सर होता भी यह है कि शैक्षिक वर्ष की शुरुआत में ऐसी गतिविधियों घर से दूर पहली बार आये छात्र-छात्राओं को आने वाले समय के लिए तैयार करती है।

ज़्यादातर छात्र किसी का बुरा नहीं चाहते पर अपने दल के कुछ शरारती तत्वों को दल के अच्छे सदस्य दोस्ती के नाते रोकते नहीं है जिसका नतीजा ये होता है की उन खुराफाती-दूषित लोगो को मिली छुट के अनुसार मनमानी की जाती है। जूनियरस से बदसलूकी होती है, उन्हें अपमानजनक स्थितियों में डाला जाता है, उनसे अमानवीय, भयावह काम करवाये जाते है। कभी-कभी इलास्टिक की तरह इंसान को उसकी हद तक…तब तक खींचा जाता है जब तक वो मानसिक या शारीरिक रूप से ‘टूट’ ना जाये। अब तक घर के संरक्षित माहौल मे जीते आये कुछ युवा ये बदलाव सहन नहीं कर पाते और आत्महत्या तक कर लेते है। कितना अजीब सौदा है ना की थोड़ी देर या कुछ दिन के मज़े के लिए किसी को गहरा मानसिक या शारीरिक आघात देना? रैगिंग करने वाले तर्क देते है की ये तो हर साल की बात हुयी …पिछले साल हमारी रैगिंग हुयी थी, अभी हमने किया, अगले साल तुम करना। गलत काम को सही नहीं ठहराया जा सकता, खासकर तब जब इस से कई लोग पागल हो गए हों, कईयों ने आत्महत्या की हो या उनका सामाजिक दायरा हमेशा के लिए उन्ही तक सिमट कर रह गया हो। अगर कल कोई खूनी, चोर या बलात्कारी अपना गुनाह छुपाने के लिए ऐसे तर्क दे तो आपका खून खौल जायेगा। कानून के डर से अब शैक्षिक संस्थानों मे ऐसी घटनाएँ काफी कम हो गयी है पर उसी डर से अब कई सीनियरस अपने से छोटो की मदद या उनसे व्यवहार तक रखने से कतराते है। वैसे भारत जैसे विशाल देश मे कम घटनाओ का मतलब भी हजारो घटनायें होता है। शैक्षिक संस्थानों को प्रोफेसरस की देख रेख मे बड़ो और छोटों की सभायें नियमित रूप से आयोजित करनी चाहिये।
सौमेंद्र ने अपने अंदाज़ मे एक बार फिर सुन्दर चित्रण किया है, फेनिल शेरडीवाला जी को धन्यवाद। सामाजिक विषयों पर फेनिल जी सहयोग के लिए सदैव तत्पर रहते है। अंत मे यही कहूँगा कि प्यार से कमायी इज्ज़त ज्यादा टिकाऊ होती है और किसी व्यक्ति से कुछ महीने डर से मिली इज्ज़त के बाद उसी से ज़िन्दगी भर गालियाँ ही मिलती है।
आपका मोहित शर्मा

Behri Duniya exclusively at Fenil Comics. Artwork by Soumendra Majumder and Colors & Effects by Manabendra Majumder.

Sunday, October 30, 2011

Indi Horror my 3rd eBook




Ebook Description

Horror stories with Indian backdrops. Characters, scenes, thrill-horror creating elements have a distinct Indian touch. Apart from the horror element this book helps in the study of contrasts & analysis that how common elements like Love, Horror etc, change so much with change in backdrop(s). Language - Hindi. Conversion of Hindi fonts for reading formats is below average, so, used English text. English translation of these stories & comic version will also come in future.


ISBN: 978-1-4660-4974-1

Web-link of 'Indi Horror' eBook -


http://www.smashwords.com/books/view/100432

Monday, October 10, 2011

"मरो मेरे साथ!" My Second eBook



क्या आत्मायें प्रतिशोध मे किसी विक्षिप्त की तरह बर्ताव कर सकती है? क्या आप आत्माओ को पागल कह सकते है?...शायद हाँ!

बांधव गाँव मे घूम रही है एक अतृप्त, पागल आत्मा जो मरने के बाद चाहती है अपनी मौत का बदला पर जो दोषी नहीं है उनसे कैसा बदला? वो देना चाहती है एक संदेश की "कभी किसी काम मे किसी का साथ मत दो और अगर दो तो...मरो मेरे साथ!"

This Horror Story, ebook is available free on Pothi.com channels and Smashwords networks.

Free ebook (Maro Mere Saath)

by Mohit Sharma "Trendster", मोहित शर्मा (ज़हन)

Saturday, September 3, 2011

Flight 297 (My e-Book on Pothi Network)






Heres the link....

 Flight 297 (Free eBook)

Description of "Flight 297"

India-1980s : A Domestic Passenger Aeroplane "Flight 297" disappears with 172 on board due to casual approach by Air Traffic Controller, Dinesh. Officials believed that the missing flight almost certainly crashed. Amid increasing public pressure Dinesh is going back to his country Fiji. Have a happy & safe journey, Dinesh! First Community Comic Project by Freelance Talents from few Online Comic Forums & websites. The fiction idea and random name finalized in the year 2007 (Raj Comics Forums) and has no relation with "Flight 297-Atlanta to Houston Incident (Year 2009)"


Wednesday, July 13, 2011

My Country Needs Me Better (Poem)


Near the streets of dirty, dingy hovels,
Lay the street lights teasing the afternoon sun,
Next to the hungry mewling kids with empty bowels,
The stalls promoting the food chain program make my fun.

 A child with his work at a shop as his only task,
Teases my helplessness and my privileges, 
The ringtone of the city lad’s cell phone shouts to ask
Why my letters cannot reach far the flung villages?

 A toll of forced laborers sinks everyday,
But only a few rich celebrities matter,
Looking at all that happens here each day,
I feel that my country needs me better!

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Poem "Desh Maange Mujhe" by Mohit Sharma

Translated by: Srishti Mudaliar

Wednesday, May 25, 2011

....84 की टीस (Pogrom 84)

1984 के सिख विरोधी दंगे या उनका सामुदायिक संहार श्रीमती इंदिरा गाँधी की मृत्यु के बाद शुरू हुआ भारत का वो काला अध्याय है जिसने हजारो लोगो की बलि ली और कई ज़िंदगियाँ जीते जी बर्बाद हुयी.. लाखो बेघर हुए... और उसके बाद...विडंबना यह है की इतनी बड़ी घटना के बाद कुछ नहीं हुआ. 11 कमीशन बैठाकर औपचारिकता निभाई गयी....हर साल मातम मनाया गया. इस अध्याय  से जुडी बातों और तथ्यों को इस कदर मिटा दिया गया और धुन्दला कर दिया गया की आज की पीढ़ी को यह दिखना बंद हो गया की हमारे देश मे ऐसा भी कुछ हुआ था. 

यह कविता समर्पित है उन सभी मासूम को और आधारित है आँखों देखे वर्णन और दृश्यों पर!

उस बेरहम वक़्त को झेलती एक जवान सिख लड़की की कहानी......






....84 की टीस (Pogrom 84)

वीरे पग ना पहनियो,
के किस्मत फिर जायेगी. 
बरसो टली क़यामत,
आज बस यूँ आयेगी....

आँखों देखा मंज़र क्यों ये दिल ना माने?
खालिस्तानी बोली भिंदरवाले जाने.
आँगन लाल है मेरा, रो-रो लाल है आँखें.

सुबह जिनके पैरो पर अपने हाथ लगाये,
शाम को चिथड़ो मे से हाथ बस पैर वो आये.

अपनी फसले जलाई, 
दीवारे घर की ढहाई.
फिर भी मिली ना ठंडक...
तो पग विच आग लगाई.

सीने पर जो वज़न लदा ऐसे,
सांस लूँ अब बता मै कैसे? 
देखे कोई मुझे आसमां से,
खोल रखा है घर के दरो को, 
आओ-आओ मुझे मार डालो.

गूँजते नारों ने बताया,
जिसमे मैंने होश संभाला,
हर सावन का झूला डाला,
मेरा देश है वो पराया!

रंगीन टी.वी. जो तू प्यार से लाया, 
लाल सड़क पर उसमे तुझे मरता दिखाया. 
ढकने सावन को पतझड़ आया,
अब लंगर नहीं लगाता गली का गुरुद्वारा. 

भारी और नम हवा कुछ बताये....
खून की गंध अपनों की लाये. 
कहते किसको क़यामत पता क्या?
लुट गया मेरा जो भी जहाँ था. 

दौड़ी बी जी मेरी चौक तक यूँ, 
कितनी चीखें सुनी क्या बताऊँ? 
हार कर कानो पर हाथ आये, 
तब भी ज़ेहन से चीखें ना जाये. 

राशन-वोटर कार्ड कभी अपने काम ना आये,
सरकारी दफ्तरों से उनकी लिस्ट वो लाये. 
सुर्ख निशान घरो पे हमारे बनाये, 
सोचती हूँ कहाँ है उसका कलेजा?
लाशों से जो वो लिस्ट मिलाये. 

जीते जी मैंने इज्ज़त बचा ली,
खुद ही अपनी नस काट डाली.
बेरहम मौत तब भी ना आये,
दर्द अब तो सहा ना जाये.

घर मे रहकर याद घरवालो की सताये,
पहुंची हूँ मै घिसट कर छत तक....और कुदूँगी...
....क्यों?
...क्योकि...ऊपर देख! मेरे बी जी-वीरा मुझे बुलाये!


The End!





Monday, May 16, 2011

"क्लेवरता" (Cleverta) मतलब चालाकी!





"गर्मियों की छुट्टियाँ पड़ी है इस बार ख़ूब सारे दोस्त बनाऊंगा. पापा की जॉब ऐसी है की हर एक-दो साल मे उनका एक शहर से दूसरे शहर ट्रांसफर हो जाता है....कोई पक्का दोस्त बनता ही नहीं जैसे पिक्चरो और सिरियलो मे दिखाते है. 


छुट्टी पड़ने से पहले किसी क्लासमेट का घर नहीं पूछा....अब मेरी सोशल स्टडीज़ की क्लास वर्क कॉपी और व्याकरण की अभ्यास पुस्तिका खो गयी है. अब पता नहीं कैसे काम पूरा होगा. पहले दिन ही टेंशन आ गयी. पापा ने भी इतने दूर के स्कूल मे एडमिशन दिलवाया की कोई क्लासफेलो पास मे रहता भी नहीं. तेरे भैया कभी राजा की मंडी की तरफ जाए तो बताइयो वहाँ मेरे स्कूल वाले दोस्त के पापा की शॉप है.

आज पहला दिन है छुट्टियों का और मामा जी आ रहे है. वैसे जब भी मेहमान, रिश्तेदार आते है मुझे बड़ा मज़ा आता है कुछ रिश्तेदारों को छोड़ कर, सब पैसे दे ही देते है. जो ऐसे ही कुछ देर के काम से आते है उनके लिए ख़ास नाश्ता मँगाया और बनाया जाता है. समोसे, टिक्की, रसगुल्ले, बर्फी, क्रीम रोल, पेस्ट्री, पेटिज़.....हाय! बताने मे ही मुँह मे पानी आ गया. ऊपर से जो बिस्कुट-नमकीन-केक के पेकिट्स खोलने की घर वालो की तरफ से मुझे मनाही होती है वो भी मम्मी अपने आप आये हुए अतिथियों के लिए परोस देती है. पर रसोई से ड्राइंग रूम तक आने मे ही मै दो-चार बिस्कुट-केक, आदि  मुँह मे रख ही लेता हूँ फिर जल्दी से बिना कुछ बोले भाग आता हूँ....कई बार तो नमस्ते करने के लिए मुँह मे भरा सामान ख़त्म करके लौटना पड़ता है. एक बार उनके सामने नाश्ता रखने के बाद मै उनके जाने का इंतज़ार करने लगता हूँ. अब जो अपरिचित या कम जान पहचान वाले मेहमान होते है वो शर्म के मारे कम खाते है. उनके जाने के बाद पता चलता है की मँगाए 6 समोसे थे खाए गए सिर्फ 3 ....उसपर भी मै जल्दी नहीं करता, शांत बच्चा बना रहता हूँ. मम्मी-पापा खुद बुलाते है की बेटा ये समोसे-केक, आदि बच रहा है खा ले.....और फिर मै आराम से एक राजा की तरह सब ग्रहण करता हूँ. 

जो रिश्तेदार घर मे मिलने और कुछ दिन रुकने के प्लान से आते है उनके लिए अलग बर्ताव करना पड़ता है. अपनी किताबो की अलमारी लगानी पड़ती है, हर चीज़ सही जगह पर रखनी पड़ती है, जल्दी सोना और जल्दी  उठना पड़ता है ताकि आये हुए मेहमान पर अच्छा असर पड़े....ये सब करने से, बाद मे मम्मी-पापा की शाबाशी और कुछ बातों मे छुट तक मिल जाती है. मेहमानों की मदद करो, उन्हें बाज़ार घुमाने ले जाओ तो मुझे भी कुछ एक्स्ट्रा खाने की चीज़ या कपडे दिलवा देते है वो. एक बड़ी ज़रूरी बात अतिथियों के पैर रोज़ छुओ और नमस्ते, गुड मोर्निंग जो आपके यहाँ चलता हो वो भी बराबर करते रहो.....अच्छा बाई चांस भूल भी जाओ तो उनके जाते वक़्त तो ज़रूर उनके पैर बड़ी श्रद्धा से छुओ क्योकि तभी तो उन्हें हज़ार-पाँच सौ का नोट देना याद रहता है. वैसे अभी तो मेरे कंजक वाले पैसे चल रहे है....तब इतनी कन्याओ मे मै अकेला लांगुरिया था, इतने घरो मे जीमे हम लोग....किसी घर से हर बच्चे ने 10 रुपये से कम नहीं लिए. अच्छा रिंकू! कल बादाम मिल्क पिया था, आज भी मन कर रहा है...मै जा रहा हूँ....मेरी साईकल मे हवा कम है नहीं तो तुझे भी ले जाता. याद रखियो जो बातें मैंने बताई है तुझे....अच्छा, बाय! सुना तूने विडियो गेम लिया...आइयों...हाँ, घर लेकर आइयो!  चल फिर....बाय!" 



Thursday, May 5, 2011

Table Hockey (School Version)





Table Hockey {Also Known As Bench Hockey} (School Version) 

One of the few Underground Extra Curricular Activities allowed in RLB, School Invention, Indoor Game.


Mini version of Field Hockey to cure the boredom in School. Invention, Research & Development by Dr. Mohit Sharma (Trendster), Yes I know credits should be posted after the writeup. 

Hockey Stick = Pen/Pencil,

Goal Post = Pencil Box,

Ball = Eraser/Sharpener,

Duration : Depends on Recess, Free Period(s) or time you get in between the classes.

Number of Player : 2 to 6 (Max. 6 is our record Rani Laxmi Bai Memorial Senior Secondary School, Vikas Nagar, Lucknow...but you can have more players if you borrow a bench from local zoo's main attraction....Hippo).

*) - 2 Pencil Boxes are placed on the edges of bench in horizontal position. Ball hitting anywhere on the box is goal.

*) - You can dribble or hit the ball from anywhere on the bench but goal is only valid when the shot is taken after the "centre line" (marked by permanent marker) dividing bench in 2 equal halves.

*) - You can only tackle with Hockey sticks. No hand to ball contact, (...this sounds double meaning or Am I over-conscious? What...Both?) If a players hand touches the ball while tackling, hitting, dribbling then the play is stopped, ball is placed at the point of impact (where Hand Penalty Occurred) on the bench. Both players get chance to possess the ball after the count of 3....it's luck whoever hits first after the count.

*) - If ball goes out of play (bench) [For example : You unintentionally hit a shot right towards your crush's seat...she ignores it & manages her pony as usual...huh! or sharpener imitates bullet & fixes itself to some untraceable location. Next day, you see it in a Pencil Box of a class fellow but have no courage to ask him/her about that sharpener.] Then the person who made last impact on the ball loses the possession of ball & another player gets chance to hit or dribble the ball from the point (side of bench) where ball left the bench or flied/dropped from the bench..worst part is the dust, even moisture (sometimes dirty) the ball gathers within the few seconds.....from when it left the play to when it is recovered from varied locations with a common backdrop of shoes-legs-dust & paper balls.

*) - You can only drag your Hockey Stick but can never "fly", "jump" (using your hand) to get advantage.

*) - If number of goals scored by teams are equal & time is less...[For Example : A teacher unexpectedly takes an extra class in a free period...I mean come on! man you are getting less than 500 Rupees per day....so, why are you working so hard? Or is this your frustration on school management...but we are students..jeez...] Then provision of 5 penalty strokes taken by each team from the "Quarter Line" (1/4 of the Bench length) marked not as dark as "Centre Line" as it is not used that much. 

Author notes :


*) - Facebook Page of Table/Bench Hockey -

http://www.facebook.com/pages/Table-Hockey-School-Version/214773321884665?ref=ts

*) - Hockey -

Hockey is a family of sports in which two teams play against each other by trying to maneuver a ball or a puck into the opponent's goal using a hockey stick. Different forms of hockey are Air Hockey, Underwater Hockey, Box Hockey, etc. More info.....

http://en.wikipedia.org/wiki/Hockey

*) - Last played this Game 5 Years ago.

Saturday, March 26, 2011

/~युद्धवीर~/


Fiction

 "टीचर ने कहा है की अगर बोर्डस मे किसी को नाम बदलवाना है तो अभी बदलवा ले. सब मुझे टीचर के सामने ही चिढाने लगे की मैडम इनका बदलवा दीजिये. मेरा नाम युद्धवीर है. नाम तो अच्छा है पर कद और शरीर साधारण से भी कम है जिस वजह से मेरे सहपाठी और दोस्त मुझे चिढाते है की ये है युद्धवीर! पर ये नाम मेरे अभिभावकों ने बड़े अरमानो से रखा है ऐसे कैसे बदलवा दूँ? आज मुझे भी गुस्सा आ गया, मन मजबूत होना चाहिए...तन तो बस दिखावा है. ऊपर से वो टीचर भी हसने लगी, फर्जी बी.एड. कहीं की....उसका भतीजा कुशाग्र, मेरे साथ पढता था वो भी तरह-तरह के तानो से मुझसे नाम बदलवाने की बात कहने लगा. मैंने लगभग चिल्लाकर अपने टीचर से कहा "मैडम, तेज बुद्धि यानी कुशाग्र का भी नाम बदलना चाहिए......आपकी वजह से बड़ी मुश्किल से अब तक पास होता आया है. अब बोर्ड्स मे पता नहीं क्या हो?" फिर मै अगले दिन से स्कूल नहीं गया. एडमिट कार्ड पहले ही मिल गया था....अब किसी दूसरे सेंटर पर एक्साम देना था बस...फिर इंटर दूसरे स्कूल से करूँगा.

पिता जी सचिवालय मे है तो सरकारी घर मिला हुआ है. घर के बाहर बड़ा लौन है. उसमे हमने तो कुछ नहीं लगाया पर हमसे जो पहले रहते होंगे उन्होंने कई पौधे लगा रखे थे. उन पौधों को हर दूसरे दिन पानी दे देता हूँ. गर्मियों के सीजन मे रोज़ पानी देता हूँ. पानी की दिक्कत है तो पाईप की जगह 1-2 बाल्टी डाल देता हूँ. लौन मे ही 2-3 "पवित्र" तुलसी के पौधे है. मै उनको कभी पानी नहीं देता या देता हूँ तो बहुत कम जो बाल्टी मे बच जाता है सबको पानी देने के बाद बल्कि मै तो बचा हुआ पानी बाकी पौधों के पत्तो पर छिड़क देता हूँ पर तुलसी जी को दूर से नमस्कार कर लेता हूँ.

क्यों?

बात ये है की पिता जी, माता जी, भाई साहब, तीनो सुबह पूजा-पाठ करके सूर्य को जल चढ़ाते है. फिर वो तीनो अलग-अलग छोटी बाल्टी से "तुलसी जी" के पौधों को जलमग्न कर देते है. तो जब इतनी वाटर लोगिंग वो पहले ही कर देते है वो लोग तो मै तुलसी को जल क्यों दूँ? मुझे पता है कोई न कोई तो उन्हें पानी दे ही देगा. एक बार तो मुझे याद है की मै गर्मी की छुट्टियों मे नानी के वहाँ गया...कुछ दिनों बाद वापस आकर देखा की सारे पौधे गर्मी मे सुख गए है पर तुलसी जी के तीनो पौधे चटकीले हरे थे, जैसे बाकी पौधों को चिढ़ा रहे हों. तो ये रूढ़िवादिता का डर भर है. मै ये नहीं कह रहा की तुलसी को जल मत दो पर जब इतना कष्ट कर ही रहे हो तो बाकी पौधों को भी पानी दे दो. माना तुलसी का पुराणों मे वर्णन है पर कई पौधों को मारकर इक्का-दुक्का पौधों को सींचकर आपको कौनसा पुण्य मिलेगा?

घर वाले रेडियो सुनते नहीं और जिस स्कूल की बात की उनसे अब मेरा कोई मतलब नहीं....वैसे तो कई स्कूल ऐसे होते है....अच्छा सर जी...टाटा! गुड बाय!"

........समाप्त!

Wednesday, February 23, 2011

करण उस्ताद

Fiction

"पहले जब भीख मांगी तो सब जने यह कहते थे की 'भगवान ने हाथ पैर दिए है, कुछ काम क्यों नहीं करता? हराम का क्यों खाता है?' सबसे कहने का मन करता था की तुम सबको भगवान ने हाथ पैर के अलावा बाप भी दिया है जिसने तुम्हे 20-30 साल तक पाला है. सरकारी नौकर या लाला-सेठ बनकर मुझ जैसे कीड़ो को कोसने के लायक बनाया है. जब तुम सब इतने साल हराम का खा सकते हो तो मै क्यों नहीं? 

फिर जब गुटखा, सिगरेट, बीडी, पान मसाला लेकर घूमा तो वो कहते 'क्यों लोगो को नशा बेचता है? दूसरो को ज़हर देकर रोटी खाता है.' उन्हें भी मालूम है की मै तो देख सकता हूँ पर मेरी भूख कुछ नहीं देखती...अब चाहे वो सही काम करके मिले या गलत. फिर भी अपने आस-पास बैठे लोगो मे खुद को धर्मात्मा कहलाने के वास्ते ये ताना ज़रूर मारते. कुत्ते कहीं के! 

बड़ा शहर न जाने क्यों भोले गाँव वालो को खींचता है. भोले कहो या पागल, मेरे लिए तो एक ही है. रब जानता है मैंने उसको कितना रोका पर मेरा छोटा भाई रेल स्टेशन पर आ गया जहाँ मै रहता था. साथ वाले रूठ गए की पहले से ठूसी जगह मे एक और भूखा आ गया. चाय वाले, चने वाले, पेपर वाले, इतने थे की किसी की बिक्री ज्यादा नहीं होती थी. कोई नया आता तो वो सबको बोझ लगता. पर अब आ गया तो आ गया....मसाला-सिगरेट बेचने मे पुलिस का लफड़ा अक्सर फंसता है....काम कोई करता है सबसे पहले हम सुत जाते है. एक दिन वो भाई को भी मेरे साथ ले गए. छोटे को अपने सामने पिटते देखा तबसे इस धंदे को छोड़ दिया. भूख की आँखें उस दिन ढक ली. फिर क्या 12 मील खेतो मे चला और कई गाजर-मूली बटोरी. हाँ-हाँ वो भी हराम की थी....अगले दिन ढाबे से नमक पार करके हम भाइयों ने बचे हुए गाजर-मूलियों को बेचा. चाकू कोई देने को तैयार नहीं तो मैंने दांतों से ही काट कर नमक लगा दिया...फिर भी कुछ ख़ास कमाई नहीं हुई. आजकल सब सेहत मे मरे रहते है....कहते है मक्खियाँ है, धूल है, कटे फल नहीं खायेंगे....अरे, खाना मिल रहा है तो खाओ न...मुझे गटर मे तैरता फल मिलेगा तो वो भी खा लूँगा. आज तक वो भी नहीं मिला. 

एक दिन मेरा भाई कांवरियों के जत्थे को 9 प्लेट खिला गया उन्होंने और मंगाई तो वो मेरे पास लेने आ गया. जब तक वो उस डब्बे मे पहुँचा कांवरियों ने जनरल डिब्बा बदल लिया और पीछे चले गए. कुत....खा के तो गए ही साथ मे स्टील की प्लेटे भी ले गए. बेवक़ूफ़ भाई ट्रेन चलने तक उन्हें वहीँ ढूँढता रह गया. साथ वाले तमाशा देखते रहे पर कुछ बोले नहीं. अब ढाबे वाले को प्लेटे कैसे देते? एक आदमी से 500 का पत्ता मिला मैंने उसको बची हुई एक प्लेट पकडाई और दौड़ लगा दी खेतो की तरफ. वो चलती ट्रेन से उतरकर मेरे पीछे भागा. गरीबी और किस्मत का कभी मेल कहाँ होता है...उसको आदमी को शायद से अगले स्टेशन पर उतरना था. मै तो हाथ आया नहीं पूछ-पाछ कर वो मोटा मेरे भाई से चला पैसा वसूलने. 2 का सिक्का मिला उसको मेरे भाई की जेब से...हा हा हा...पता नहीं कितना समय था उसके पास मेरे भाई को थाने मे बिठा आया. पुलिस वालो ने उस दिन जो केस सुलझे नहीं उनका दोष भी मेरे भाई को देकर 1 साल के लिए जेल भेज दिया. सुना था की बच्चो और 18 से कम वालो के लिए अलग जेल होती है. पर लिखा-पढ़ी और वहाँ ले जाने के झंझट से बचने के वास्ते कमीनो ने 11 साल के भाई को 18 का बता दिया. मैंने भी उसको छुड़ाने की कोशिश नहीं की सोचा चलो एक साल तक राड़ कटी. रोटी मिलेगी भाई को और थोड़ी अकल भी आएगी 'बड़ो' के बीच. 

अच्छा साब! कौन सा रेडिओ आता है आपका? नाम मत लेना मेरा...उस्ताद बोल देना...भाई समझ जाएगा. रिकॉर्ड हुआ की नहीं....हो रहा है...नखलऊ वालो को करण उस्ताद का सलाम....खुद ही नाम बोल दिया...काट देना हाँ...साब धंदे के टाइम आये हो....4 ट्रेन निकली वो भी सिर्फ इस पलेटफारम से...कुछ देते तो जाओ..."