वह भागने की कोशिश करे कबसे,
कभी ज़माने से तो कभी खुद से...
कोई उसे अकेला नहीं छोड़ता,
रोज़ वह मन को गिरवी रख...अपना तन तोड़ता।
उसे अपने हक़ पर बड़ा शक,
जिसे कुचलने को रचते 'बड़े' लोग कई नाटक!
दुनिया की धूल में उसका तन थका,
वह रोना कबका भूल चुका।
सीमा से बाहर वाली दुनिया से अनजान,
कब पक कर तैयार होगा रे तेरा धान?
उम्मीदों के सहारे सच्चाई से मत हट,
देखो तो...इंसानी शरीर का रोबोट भी करने लगा खट-पट!
अब तुझे भीड़ मिली या तू भीड़ को मिल गया,
देख तेरा एक चेहरा कितने चेहरों पर सिल गया।
यह आएगा...वह जाएगा,
तेरे खून से समाज सींचा गया है...आगे क्या बदल जाएगा?
तेरे ज़मीन के टुकड़े ने टेलीग्राम भेजा है,
इस साल अच्छी फसल का अंदेशा है।
देख जलते शहर में लगे पोस्टर कई,
खुश हो जा...इनमें तेरी पहचान कहीं घुल गई।
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आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28.01.2021 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा| आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी
ReplyDeleteधन्यवाद
वाह! चर्चा मंच की बात ही कुछ और है. आभार!
Deleteसमसामयिक अभिव्यक्ति...
ReplyDeleteशुक्रिया! वैसे तो मैं समसामयिक मुद्दों से बचता हूं, क्योंकि इनपर लिखना कई लोगों के अनुसार मौके का फ़ायदा उठाना होता है। हालांकि, इतने सालों में कुछ बातों पर न करते करते भी कुछ लिखा ही जाता है...
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