मुझको साया दिखा....उसके पीछे रौशनी,
पल मे यूँ गुम गया जैसे था ही वो नहीं,
मुझको छोडा अनजाना सा...बेगाना सा यहाँ,
खुद से मै पूछता मुझको जाना अब कहाँ?
ओ माँ.........
क्यों फेंका कूडे पर....मेरी माँ?
हमम..क्यों फेंका कूडे पर मेरी माँ?
कैसे कर लूँ मै इस बात का यकीन?
आँखें खुली नहीं.... और मै बन गया यतीम.
क्या थी मजबूरी या मुझमे कुछ कमी,
आँचल के बदले क्यों मिली मुझे ज़मी?
आहट हो जब भी तो लगता है यही,
देखे तू मुझको छुप के कहीं...
कबसे तुझको ढूँढता फिर रहा...
देख ना माँ...तेरा मुन्ना अब बड़ा हो गया.
ओ माँ.....
क्यों फेंका कूडे पर....मेरी माँ...!
हमम..क्यों फेंका कूडे पर मेरी माँ?
धुन्दला सा याद है अब तक साया वो तेरा,
आँचल मे क्यों ना दी पनाह?
इतना तो सोचा होता....
नन्ही सी जान और इतना बड़ा जहाँ....
बचपन तो गया...फिर भी वक़्त है थमा....
मुझे बता...ओ माँ....क्यों फेंका कूडे पर मेरी माँ?
आश्चर्य है! तुम्हारी इतनी अच्छी कविता पर तुम्हारे इतने सारे followers ने एक कमेन्ट देने की ज़हमत नहीं उठाई, i liked ur these verses very much
ReplyDeleteबहुत मार्मिक कविता लिखी है सूरज के ऊपर
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