खिलखिलाता बचपन जैसे रूठ गया,
धुन्दला सा गाँव पीछे कहीं छूट गया.
अभी तो 'उसे' माँ के आँचल मे था सोना,
खेत खलियानों मे था खोना,
नन्ही आँखों से सपनो को था संजोना,
उसका बचपन वापस दो ना.
फिर एक मासूम काम की तरफ मुड़ा,
रोटी के लिए मेहनत करने वाले छोटूओ मे एक छोटू और जुड़ा.
बर्तनों से खेलता,
दिन भर मालिक के ताने झेलता,
वो गिरता...लडखडाता,
अपनी भावनाओ को क्या खूबी से छुपाता.
अपनी हर इच्छा मारकर दूसरो के 'आर्डर' लेता,
पगार की आस मे अपना हर दुख सहता.
नन्हे कंधो पर डलवा दे जो दुनियादारी,
ऐसी दौलत हराम की है सारी,
क्यों नहीं ये समाज शर्म से डूब मरता,
जिसे आगे बढ़ने के लिए बच्चो का सहारा है लेना पड़ता.
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